Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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वन (जंगल) में श्रावकों का अभाव होने से चन्द्रगुप्त मुनिराज के भी अनेक उपवास हो गये। तब स्वामी ने कहा- हे वत्स ! अकारण उपवास उचित नहीं हैं । जिनेन्द्रदेव की आज्ञानुसार विधिपूर्वक वन में भी आहार के लिए जाओ।
गुरु- आज्ञानुसार उनको नमस्कार करके चन्द्रगुप्त मुनिराज आहार के लिए गये किन्तु उनको तीन दिवस विधिपूर्वक आहार नहीं प्राप्त हुआ। तीन दिवस के बाद वह पुनः अन्य दिशा में आहार के लिए गए, तब उनको जिनआज्ञा में रत, पवित्रबुद्धि, श्रेष्ठ तपस्वी जानकर वनदेवी के द्वारा उस दिशा में एक सुन्दर नगर का निर्माण किया
गया ।
तत्थ तस्स विहिणा आहारो संजादो । तेण णिरंतराय - आहारस्स सव्वो वुतंत्तो गुरुको। किवा गुरुदेवो सम्मं संतुट्ठो जादो । पडिदिणं तम्मि णयरम्मि आहारं किच्चा चंदगुत्तमुणिराओ गुरुसेवाए तल्लीणो जादो । कालंतरेण समाहिपुव्वगं देहं चइऊण अंतिमो सुदकेवली भगवंतो भद्दबाहू मुणिणाहो सग्गे अइसय-संपण्णं देवत्तं पत्तं ।
संघभेदो : तत्थ पाडलिपुत्ते कालक्कमेण दुब्भिक्खो परिवड्ढमाणो पसरइ । खुहाए बालगा करुण-कंदणं करेंति, लोगा उम्मगगामी जादा, पसु-पक्खिणो पाणे चइउं पयत्ता । तदा तेण दुब्भिक्खेण तत्थ णिवसमाणो मुणिसंघो वि पीडिओ। एगदा आहारं कादूण परिवट्टमाणस्स मुणिसंघस्स. एगस्स मुणीणो उयरं फाडिऊण खुहापीडियजणेहिं भुत्तं अण्णं भुत्तं । तदा सव्वंसि मुणिसंघ-सावगसंघे य अइखोहं जादं । एवं भीसणं उवसग्गं दट्ठण सावगेहिं मुणिसंघस्स णिवेदणं किदं - हे सामि ! अइदुक्करं कालो आगदो। अओ तुम्हे उज्जाणं (वणं) मुंचिऊण णयरे णिवसध, जे अम्हाणं चित्ते संतोसो संचरेज्ज तहा साहुसंघस्स वि रक्खा भवेज्ज ।
परिष्ट्ठिदिवसा संघो णयरं आगदो तहा सावगेहिं णिद्दिट्ठे ठाणे ठिदो ... कालक्कमेण दुब्भिक्खो भीसणदरो जादो । मुणिणा सावगाणं अग्गहेण रत्तीए आहारं आणेऊण पादो परोप्परं परिभुंजित्था ।
एगदा अध्दरत्तीए एगो मुणी सावद - णिवारणत्थं लट्ठि, भोयणपरिरक्खणत्थं भायणं, पिच्छी-कमंडलुं च गेव्हिअ भयंकरो णिसायरोव्व दीसमाणा कस्सइ सावगस्स गेहं पविट्ठो । तस्स भयंकर-णग्गरूवं दट्ठूण एगाएमहिलाए गब्भो पडिओ । इणं घडणं सुणिदूण सावगेहिं मुणिसंघस्स पुणो णिवेदणं किदं भो सामि ! अस्सिं भीसणकाले इणमो णग्गो विसमरूवो भय-कारणं अस्थि तम्हा कंबलं धारध ।... इत्थं मुणिसंघो सणियं-सणियं दिगंबरत्तादो परिभट्टो जादो । हिंचि मुणीहिं सत्थाणुसारेण देहा चत्ता ।
तत्थ बारहवरिस-पच्छा सिरि विसाहायरियो ससंघो दक्खिणदो उत्तरदिसाए विहरतो गुरुसमाहिणो दंसणत्थं सवणबेलगोलं आगदो । तत्थ चंदगुत्तमुणिराएण
भद्रबाहु - चरियं :: 393

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