Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 396
________________ आयरिय-विसाहाणं णमोत्थु त्ति किदं किंतु सावगरहिद-ठाणे चंदगुत्तस्स चारित्तो कहंणिद्दोसं भवेज ति चिंतिऊण तेण पडिणमोत्थु त्ति ण किदं। तत्थेव सावगाणं अभावं जाणिऊण उववासं कुणंतं संघ चंदगुत्तो एवं वयासी-भो रयणत्तयाराहगा! उववासं मा कुणध, समीपेजेव सेट्ठ-सावगेहिं परिपुण्णो एगो गामो.अस्थि, तत्थ आहारत्थं गच्छध। वहाँ उनका विधिपूर्वक आहार हुआ। तब निरन्तराय आहार का सब वृतान्त उन्होंने गुरु को कहा। कृपालु गुरुदेव सम्यक्प से संतुष्ट हुए। प्रतिदिन उस नगर में आहार करके चन्द्रगुप्त मुनिराज गुरुसेवा में तल्लीन हुए। कुछ काल पश्चात् समाधिपूर्वक देह को त्यागकर अंतिम श्रुतकेवली भगवान् भद्रबाहु मुनिनाथ ने स्वर्ग में अतिशय सम्पन्न देवत्व को प्राप्त किया। संघभेद : वहाँ पाटलिपुर में कालक्रम से दुर्भिक्ष, चारों ओर बढ़ते हुए फैलता है। क्षुधा से पीड़ित बालक करुण क्रन्दन करते हैं, लोग उन्मार्गी हो जाते हैं, पशुपक्षी प्राण छोड़ने लगते हैं। तब उस कारण से वहाँ निवास करता हुआ मुनिसंघ भी पीड़ित हुआ। एक बार आहार करके लौटते हुए मुनिसंघ के एक मुनि का क्षुधा से पीड़ित लोगों ने पेट फाड़कर वह अन्न खाया। तब सम्पूर्ण मुनिसंघ और श्रावक संघ में अतिक्षोभ हुआ। इस प्रकार भीषण उपसर्ग देखकर श्रावकों ने मुनिसंघ को निवेदन किया-हे स्वामी! अतिदुष्कर काल आ गया। अतः आप लोग उद्यान (वन) को छोड़कर नगर में निवास करो, जिससे हमारे मन में संतोष का संचरण हो और साधुसंघ की भी रक्षा होगी। परिस्थितिवश संघ नगर में आ गया और श्रावकों द्वारा निर्देशित स्थान पर ठहर गया।... कालक्रम से दुर्भिक्ष अतिभीषण हो गया। तब मुनि श्रावकों के आग्रह पर रात्रि में आहार लाकर प्रातःकाल परस्पर खाने लगे। __ एक बार अर्द्धरात्रि में एक मुनि पशुओं का निवारण करने के लिए लाठी,भोजन की सुरक्षा के लिए भाजन (पात्र) तथा पिच्छी-कमण्डलु हाथ में लेकर भयंकर निशाचर की तरह दिखते हुए एक श्रावक के घर में प्रविष्ट हुए। यह भयंकर विचित्र नग्नरूप देखने से एक गर्भवती महिला का गर्भपात हो गया। यह भयंकर वार्ता सुनकर श्रावकों ने मुनिसंघ से निवेदन किया-हे स्वामी! इस भीषण काल में यह विषम नग्नरूप भय का कारण है, इस कारण से कम्बल धारण करो। इस प्रकार धीरे-धीरे मुनिसंघ दिगम्बर रूप से भ्रष्ट हो गया। कुछ मुनियों द्वारा शास्त्रानुसार देह का त्याग किया गया। वहाँ बारह वर्ष पश्चात् श्री विशाखाचार्य ससंघ दक्षिण-दिशा से उत्तरदिशा की ओर विहार करते हुए गुरुसमाधि के दर्शनार्थ श्रवणबेलगोला आये। वहाँ चन्द्रगुप्त मुनिराज ने आचार्य विशाख को नमोस्तु किया किन्तु श्रावक रहित स्थान पर चन्द्रगुप्त 394 :: सुनील प्राकृत समग्र

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