Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 398
________________ लिए गया। वहाँ श्रावकों द्वारा सर्वसंघ के लिए विधि सहित आहार दिया गया। आहार के बाद सभी मुनि अपने स्थान को आ गये, किंतु एक क्षुल्लक वहाँ पर अपना कमंडलु भूलकर आ गये। पुनः वह कमंडलु प्राप्ति के लिए वहाँ गये, किन्तु वहाँ नगर न देखकर आश्चर्यचकित हुए। एक वृक्ष की शाखा पर लटकता हुआ कमंडलु ग्रहण करके अपने स्थान पर आ गये। आचार्य के समीप उन्होंने (क्षुल्लक ने) सभी वृतान्त कहा। किञ्चित् चिन्तन करके विशाखाचार्य ने कहा-अहो! यह चन्द्रगुप्त की गुरुभक्ति तथा तप का महात्म्य है। इनके प्रभाव से देवों द्वारा यह अतिशय किया गया। अनन्तर चन्द्रगुप्त को प्रतिवंदना करके इस प्रकार कहते हैं-हे चन्द्रगुप्त! तप के प्रभाव से तुम्हें और आज सर्वसंघ को देवकल्पित आहार प्राप्त हुआ है किन्तु वह उचित नहीं है, अतः प्रायश्चित ग्रहण करना चाहिए। सभी के द्वारा प्रायश्चित किया गया। उसके बाद समाधि साधना के लिए चन्द्रगुप्त मुनिराज यहीं पर स्थित हुए तथा सकल मुनिसंघ उत्तरदिशा की ओर विहार करते हुए क्रमशः पाटलिपुर नगर पहुंचा। पाटलिपुर में ससंघ श्री विशाखाचार्य को आये हुए जानकर स्थूलभद्रादि मुनि उनके दर्शनार्थ आये और नमोस्तु किया किन्तु आचार्य ने प्रतिवंदना नहीं दी, अपितु पूछा- तुम लोगों ने यह कौन सा शासन ग्रहण किया है? तब वृद्ध स्थूलभद्र मुनि अपने संघ के दोष और शिथिलाचार का चिन्तन करके अपने संघ के प्रति इस प्रकार कहते हैं- हे गुणग्राही! सभी लोग यह कुमार्ग और अनाचार छोड़कर छेदोपस्थापना करो। यदि इस प्रकार नहीं किया गया तो घोर संसार सागर में परिभ्रमण होगा। कुछ लोगों के द्वारा सुमार्ग ग्रहण किया गया, किन्तु कुछ शिथिलाचारियों को यह कथन अच्छा नहीं लगा। अति आग्रह करते हुए स्थूलाचार्य को कुछ क्रोधित लोगों के द्वारा खड्डे में गिरा दिया गया। वहाँ आर्तध्यानपूर्वक मरकर वह देवगति को प्राप्त हुए। अवधिज्ञान से पूर्व वृत्तान्त जानकर कुमार्गरतों पर घोर उपसर्ग करते हुए कहाअनाचार छोड़ो, सुमार्ग ग्रहण करो। देव के वचन सुनकर सभी कुमार्गगामी अतिविनय से इस प्रकार कहने लगेभगवन् ! निर्ग्रन्थ मार्ग अतिदुष्कर (कष्टसाध्य) है, उसके निर्वहन (परिपालन) में हम समर्थ नहीं हैं। तुमं अम्हाणं गुरू अत्थि। अम्हे भत्तिपुव्वगं तव पूया-वंदणं करिस्सामो। उवसग्गं मा कुणध... उवसग्गं मा कुणध.... उवसग्गं मा कुणह। अम्हे सव्वे तव सरणागदा। एवं तं देवं उवसमित्ता तस्स अट्ठिम्मि गुरु-बुद्धि कादूण तस्स पूर्य कादं 396 :: सुनील प्राकृत समग्र

Loading...

Page Navigation
1 ... 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412