Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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संगहीणं णिजादिं भव्वजीवाणुरागिणं । मंगलकारिणं मुत्ति, वंदे सम्मदिसायरं ॥66 ॥
अन्वयार्थ – (संगहीणं णिजाणंदि) संगहीन निजानंद (भव्वजीवाणुरागिणं) भव्यजीवानुरागी (मंगलकारिणं मुत्ति) मंगलकारी मूर्ति ( सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ – संगरहित, निजानंद, भव्यजीवानुरागी, मंगलकारी मूर्ति, श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
णियप्पज्झाणसंपण्णं, भव्वजीव - हितंकरं । सूरिसेट्टंतवोजुत्तं, वंदे सम्मदिसायरं ॥67 ॥
अन्वयार्थ—(णियप्पज्झाणसंपण्णं) निजात्मध्यान संपन्न ( भव्यजीवहितंकरं ) भव्य जीवों का हित करनेवाले (सूरिसेट्ठ) सूरिश्रेष्ठ (तवोजुत्तं) तपोयुक्त (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ —निजात्मध्यान संपन्न भव्य जीवों का हित करनेवाले सूरि श्रेष्ठ तपोयुक्त श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
तित्थजत्ता य कत्तारं, तित्थरूवं पदादुवं । तित्थखेत्ते कदावासं, वंदे सम्मदिसायरं ॥68 ॥
अन्वयार्थ – (तित्थजत्ता य कत्तारं ) तीर्थयात्रा करनेवाले ( तित्थरूपं पदादुवं) तीर्थरूप पदद्वयवाले (तित्थखेत्ते किदावासं) तीर्थक्षेत्र में आवास करनेवाले ( सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ – तीर्थयात्रा करनेवाले, तीर्थरूप चरण युगलवाले, तीर्थक्षेत्र में आवास करनेवाले श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
सुहमग्गं पदंसेदि, गुरुगोरव - वड्ढगं । संतिजुत्तं दयापुण्णं, वंदे सम्मदिसायरं ॥69 ॥
अन्वयार्थ–(सुहमग्गं पदंसेइ ) सुखमार्ग का प्रदर्शन करनेवाले (गुरुगोरववड्ढगं) गुरु गौरव वर्द्धक, (संतिजुत्तंउ दयापुण्णं) शांतियुक्त दयापूर्ण (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ - सुखमार्ग का प्रदर्शन करनेवाले, गुरु के गौरव वर्द्धक, शांतियुक्त, दयापूर्ण श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
अगंतीं महाणाणीं, सियावायिं सुभासणिं । आगमणेत्त-संजुत्तं वंदे सम्मदिसायरं ॥70॥
370 :: सुनील प्राकृत समग्र

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