Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 388
________________ आचार्य कहते हैं-एक बार माता-पिता के पास जाओ। भद्रबाहु-भगवन् ! आपके प्रसाद से मुझको सम्यग्ज्ञान हुआ है। अतः मुझे घर जाने की इच्छा नहीं है। असार संसार में किसकी कौन माता? कौन किसका पिता? कौन किसका कुटुम्ब और बंधुवर्ग? पुनः स्नेहपूर्वक आचार्य उसको कहते हैं- वत्स! जिनशासन की परंपरा अनुसार तुमको घर जाना चाहिए। पश्चात् आज्ञा ग्रहणकर आ जाना। विनयपूर्वक भद्रबाहु कहते हैं- भगवन् ! आपकी जैसी आज्ञा। दिक्खाहेदं आणा : णाण-विण्णाणेण, सरूव-सोहग्गेण य संपण्णं भद्दबाहुं दट्ठण मादा-पिदरो परियणा य अदिहरिसिदा संतुट्ठा य जादा। भद्दबाहुं विजा-कला तहा वाद-सत्थपारंगदं दट्ठण णयरस्स रण्णा वि तस्स बहुमाणं किदं।.. परियणेसुंणाणिसु कंचि कालं बोलिऊण तेसिं धम्म देसिऊण भद्दबाहुणा पिदुणो कहिदं-भो पिदा! अप्पकल्लाणत्थं जिणदिक्खाहेदं तव आणं वंछामि। इणं वयणं सुणिदूण सव्वे परियणा दुक्खिदा जादा।सव्वेसि पि भद्दबाहुस्स विओगो अइकट्ठकरो जादो। तदा भद्दबाहुणा सम्मुवदेसेण, कल्लाणयारी वेरग्ग-वयणेहिंसव्वे पडिबुज्झा किदा।..तं पच्छा मादि-पिदु-परेयणेहिं जहजोग्गं आणत्तो भद्दबाहू गुरु-समीवं गदो। सव्वं वुत्तंतं कहिदूण अइविणएण गुरुं भद्दबाहू एवं पत्थेदि-भयवं! कल्लाणकारिणिं, सव्वसंतावहारिणिं, आयासव्व णिरुवलेवं, खिदिव्व गहिरं, एगंतविरदिरूवं, देविंद-विंद-पत्थणिजं णिग्गंथदीक्खं ममं देहि। जिणेसरिं दिक्खं दाऊण आइरिय-गोवड्ढणेण भद्दबाहू किदत्यो किदो। मुणिसंघे सत्थाणुसारेण पवट्टमाणो,पंचाचार-पालणं कुव्वंतो कमेण भद्दबाहू सुदकेवली जादो।आउअवसाणकालं जाणित्ता भद्दबाहु-सुदकेवलिम्मि संघभारं समप्पिऊण, सेट्ठ-सल्लेहणं साधिऊण मुणिणाहो गोवड्ढणसामी सग्गं गदो। अटुंगणिमित्तधारी सुदकेवली भद्दबाहूसामी मुणिसंघेण सह देस-देसंतरं विहरंतो धम्मोवदेसं, दिक्खं-सिक्खं च कुव्वंतो अइप्पसिद्धो जादो। ___ चंदगुत्तस्स दिक्खा : एगदा ससंघ विहरतो आइरियो भद्दबाहूपाडलीपुत्तणयरं पत्तो। तम्मि काले तस्स णयरस्स राया जिणधम्म-परायणो, अदिसूरो, णीदिणिउणो, णिग्गंथगुरु-भत्तो चंदगुत्तो आसी। तेण अइउच्छाहेण सामंत-सेट्ठीवग्गसहिदं मुणिसंघस्स सागदं किदं...सो राया सुदकेवलिणो गुरुराइणो मुणिसंघस्स य भत्तीए तल्लीणो जादो। एगाए रत्तीए भारहाधीस-महाराय-चंदगुत्तेण सोलस कुसुविणाणि दिट्ठाणि। पादो पच्चूसकाले सगुरुणो भद्दबाहुसामिणो विहिणा वंदणं कादूण 386 :: सुनील प्राकृत समग्र

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