Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 376
________________ अन्वयार्थ – (सोम्ममुत्तिं) सौम्यमूर्ति (सुसोमप्पं) सुसौम्यात्मा (चरित्तुज्जलधारिणं) उज्ज्वल चारित्र को धारण करने वाले (भव्वजीवाण तादारं ) भव्य जीवों के त्राता (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ – सौम्यमूर्ति, सुसौम्यात्मा, उज्ज्वल चारित्र को धारण करनेवाले, भव्य जीवों के त्राता श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । झाण- णाणवदं-मुत्तिं, किरियामुत्तिं जाणगं । अज्झप्पजोगमुत्तिं च, वंदे सम्मदिसायरं ॥84 ॥ अन्वयार्थ – (झाण- णाणवदं - मुत्तिं ) ध्यान - ज्ञान - व्रत - मूर्ति ( किरियामुत्ति) क्रियामूर्ति ( जाणगं) ज्ञायक (अज्झप्पजोगमुत्तिं च ) और अध्यात्मयोग मूर्ति (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । - अर्थ – ध्यानमूर्ति, ज्ञानमूर्ति, व्रतमूर्ति, क्रियामूर्ति और अध्यात्मयोग मूर्ति श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । भव्वणिसेव्वं णिस्संगं, जहाजादं सरूविणं । दिव्वजोदिधरं सुज्जं वंदे सम्मदिसायरं ॥85 ॥ अन्वयार्थ – (भव्वणिसेव्वं) भव्यजन निसेव्य (णिस्संगं) नि:संग (जहाजादसरूविणं) यथाजात स्वरूप (दिव्वजोदिधरं सुज्जं ) दिव्यज्योतिधर सूर्य (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - भव्यजन निसेव्य, निःसंग, यथाजात स्वरूप, दिव्य ज्योतिर्धर, सूर्य श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । अणसणादि- माहप्पं, जाणगं धारगं तहा । संजमभूसिदं सम्मं वंदे सम्मदिसायरं ॥86 ॥ अन्वयार्थ – (अणसणादि माहप्पं) अनशन आदि के महत्त्व को (जाणगं) जानने वाले (तहा) तथा ( धारगं ) धारण करनेवाले (संजमभूसिदं सम्मं) सम्यक् संयम से भूषित श्री ( सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ - अनशन आदि के महत्त्व को जानने वाले धारण करनेवाले सम्यक् संयम से भूषित श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । सुदंसिं सम्मसंजुत्तं, सम्ममुत्तिं विरागिण । लोगप्पवादहीणं च, वंदे सम्मदिसायरं ॥ 87 ॥ अन्वयार्थ – (सुदंसि) श्रुतांशी ( सम्मसंजुत्तं) सम्यग्दर्शन संयुक्त (सम्ममुत्तिं) 374 :: सुनील प्राकृत समग्र

Loading...

Page Navigation
1 ... 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412