Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 369
________________ सम्मदंसण-संजुत्तं, विमलण्णाण-संजुदं। खीणमोहं जिदाणंग, वंदे सम्मदिसायरं ॥53 ॥ अन्वयार्थ-(सम्मदंसण-संजुत्तं) सम्यग्दर्शन संयुक्त (विमलण्णाणसंजुदं) विमलज्ञान सहित (खीणमोहं) क्षीणमोह (जिदाणंगं) कामजयी (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ-सम्यग्दर्शन संयुक्त, विमलज्ञान सहित, क्षीणमोह, कामजयी श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। जुगधम्मपवत्तारं, विस्ससंतिं पवट्टगं। विस्सकल्लाणकत्तारं, वंदे सम्मदिसायरं ।।54॥ अन्वयार्थ-(जुगधम्म पवत्तारं) युगधर्म प्रवर्तक (विस्ससंति पवट्टगं) विश्वशांति को बढ़ानेवाले (विस्सकल्लाणकत्तारं) विश्वकल्याण करनेवाले (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ-युगधर्म प्रवर्तक, विश्वशांति को बढ़ानेवाले, विश्व कल्याण करनेवाले श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। सुधम्मरयणाधारं, णाणामियप्पदायगं। णाणजोदिं तवोपूर्व, वंदे सम्मदिसायरं 155 ॥ अन्वयार्थ-(सुधम्मरयणाधारं) श्रेष्ठ धर्मरूपी रत्न के आधार (णाणामियप्पदायगं) ज्ञानामृत प्रदायक (णाणजोदि) ज्ञानज्योति (तवोपूदं) तपोपूत (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। __ अर्थ- श्रेष्ठ धर्मरूपी रत्न के आधार, ज्ञानामृत प्रदायक, ज्ञानज्योति, तपोपूत श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। णिस्संगिणं णिजाणंद, आसंबरं महागुणिं । सत्ततच्चाण-णादारं, वंदे सम्मदिसायरं ॥56॥ अन्वयार्थ-(णिस्संगिणं) निस्संग (णिजाणंदं) निजानंद, (आसांबरं) दिगंबर, (महागुणिं) महागुणी, (सत्ततच्चाण-णादारं) सप्ततत्त्व के ज्ञाता (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ-निस्संग, निजानंद, दिगंबर, महागुणी, सप्ततत्त्व के ज्ञाता श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। संताघकल्मसं सोम्मं, तिविहा-ताव-हारिणं। जोगणिटुं महोजोगिं, वंदे सम्मदिसायरं ॥57॥ सम्मदि-सदी :: 367

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