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अन्वयार्थ-(पसंसाए पराकट्ठ) प्रशंसा की पराकाष्ठा व (अकप्पिदं जिंदं सोत्ता) अकल्पित निंदा सुनकर भी जो (दुवे) दोनों में (संतुलिदां चित्तां) संतुलित चित्त हैं उन (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ।
___ अर्थ-प्रशंसा की पराकाष्ठा व अकल्पित निंदा सुनकर भी जो दोनों में संतुलित चित्त हैं उन श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
अकिंचणं परं दिण्णं, णिप्पिहं णिहिलेसरं।
अप्पाराम-रदं विण्डं, वंदे सम्मदिसायरं ॥45॥ अन्वयार्थ-(अकिंचणो परं दिण्णं) अंकिचन किन्तु श्रेष्ठ दाता (णिप्पिहं णिहिलेसरं) निस्पृह किंतु निखिलेश्वर (अप्पाराम रदो विण्हुँ) आत्माराम में रत विष्णु (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। ___अर्थ-अकिंचन किंतु श्रेष्ठ दाता, निस्पृह किंतु निखिलेश्वर, आत्माराम में रत विष्णु श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
दयामुत्तिं दयासिंधुं, मिच्छारोग विवज्जियं।
संतमुत्तिं दंतमुत्ति, वंदे सम्मदिसायरं॥6॥ अन्वयार्थ-(दयामुत्तिं) दयामूर्ति (दयासिंधुं) दयासिंधु (मिच्छारोगविवज्जियं) मिथ्यात्वरोग से रहित (संतिमुत्ति) शांतिमूर्ति (दंतमुत्तिं) दांतमूर्ति (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ।
अर्थ-दयामूर्ति, दयासिंधु, मिथ्यात्व रोग से रहित, शांतिमूर्ति, दांतमूर्ति श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
सज्झाय-झाणसंजुत्तं, तवोपूदं तवस्सिणं।
चारित्तभूसणं पुजं, वंदे सम्मदिसायरं ॥47 ॥ अन्वयार्थ-(सज्झाय-झाणसंजुत्तं) स्वाध्याय व ध्यान युक्त (तवोपूर्व) तपोपूत (तवस्सिणं) तपस्वी, (चारित्तभूसणं पुजं) चारित्रभूषण पूज्य (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ।
__ अर्थ-स्वाध्याय व ध्यान युक्त, तपोपूत, चारित्रभूषण पूज्य श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
जिदरागं जिदं दोसं, जिदवक्कं च माणसं।
जिददेहं विकारं च, वंदे सम्मदिसायरं ॥48॥ अन्वयार्थ-(जिदरागं) जितराग, (जिदं दोसं) जितद्वेष, (जितवक्कं च माणसं) जितवाक्य व जितमन (जिददेहं विकारं च) जितदेह व जितविकार (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ।
सम्मदि-सदी :: 365