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सम्मदि-सदी (सन्मति-शती, अनुष्टुप-छन्द)
णमो रिसहदेवस्स, कम्मभूमि-पवट्टगो।
सव्व-विजा-कला जेणं, पवट्टिदो महीयले॥1॥ अन्वयार्थ-(जेण) जिनने, (सव्व, विजा-कला) सभी विद्या व कलाएँ, (महीयले पवट्टिदो) भूमितल पर प्रवर्तित की, (कम्मभूमि पवट्टगो) जो कर्मभूमि के प्रवर्तक हैं (उन) (रिसहदेवस्स) ऋषभदेव के लिए (णमो) नमस्कार हो।
अर्थ-जिनने सभी विद्या व कलाएँ भूमितल पर प्रवर्तित की, जो कर्मभूमि के प्रवर्तक हैं उन ऋषभदेव के लिए नमस्कार हो।
सम्मदि-भयवं सेठें, सम्मदि-भारदिं सुहं ।
सम्मदि-पमुहं सूरिं, वंदे सम्मदिसासणं ॥2॥ अन्वयार्थ-(सेटं सम्मदिभयवं) श्रेष्ठ सन्मति भगवान्, (सुहं सम्मइभारदि) सुधास्वरूप सन्मति भारती, (सूरिपमुहं सम्मदिं) सूरि प्रमुख सन्मतिसागर को [तथा] (सम्मदिसारणं वंदे) सन्मतिशासन को वंदन करता हूँ।
अर्थ- श्रेष्ठ सन्मति भगवान्, सुधास्वरूप सन्मति भारती अर्थात् जिनवाणी, सूरि प्रमुख सन्मतिसागर तथा सन्मतिशासन को वंदन करता हूँ।
आदिसूरिस्स वंसे य, विमले सोहिदे सुहे।
महावीरकित्ती पट्टे , जादो सम्मदिसायरो॥3॥ ____ अन्वयार्थ-(विमले सोहिदे सुहे) विमल सुशोभित शुभ, (आदिसूरिस्स वंसे) आदिसागर आचार्य के वंश में (महावीरकित्ती पट्टे) महावीरकीर्तिजी के पट्ट पर (सम्मदिसायरो) सन्मतिसागर (जादो) हुए।
. अर्थ-विमल सुशोभित शुभ, आचार्य आदिसागर के वंश में, महावीरकीर्ति के पट्ट पर सन्मतिसागर हुए।
अत्थि गामो फफोदू य, सेढे एटा जणवदे। भारहे उत्तर-देशे, तम्हि अत्थि बहुजणा॥4॥
सम्मदि-सदी :: 355