Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 362
________________ अन्वयार्थ - (महोवसग्गजेदारं) महान उपसर्गों को जीतनेवाले (णंतवीरियथावगं) अनंतवीर्य की स्थापना करनेवाले (तक्क - णीरासगंजोइं) छाछ पानी का आहार लेनेवाले योगी, (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ – महान उपसर्गों को जीतनेवाले, अनंतवीर्य भगवान की स्थापना करने वाले छाछ पानी का आहार लेनेवाले योगी श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । महाधीरं महामोणिं, सुदिग्घ - तवसिं-त - तहा । ध-धणं रसं चागिं, वंदे सम्मदिसायरं ॥24 ॥ - अन्वयार्थ – (महाधीरं) महाधैर्यवान (महामोणि) महामौनी (सुदिग्घतवसिं) दीर्घ तपस्वी (तहा) तथा ( धण - धण्णं रसं चागि) धन-धान्य व रसों के त्यागी (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ – महाधैर्यवान, महामौनी, दीर्घ तपस्वी तथा धन-धान्य व रसों के त्यागी श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । सदा चिंतेदि भावेणं, जेण्हं जयदु सासणं । धम्मप्पहावगं सूरिं वंदे सम्मदिसायरं ॥ 25 ॥ अन्वयार्थ – (सदा चिंतेदि भावेण ) जो सदा भावपूर्वक चिंतन करते हैं कि (जेहं जयदु सासणं) जैन शासन जयवंत हो ऐसे ( धम्मप्पहावगं ) धर्म प्रभावक (सूरिं) आचार्य (सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ — जो सदा भावपूर्वक चिंतन करते हैं कि जैन शासन जयवंत हो ऐसे धर्मप्रभावक आचार्यश्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । गंगा णामी जस्स, जमुणा जोगसाहिणी । बंभपुत्त व्व बंभाभा, वंदे सम्मदिसायरं ॥26॥ अन्वयार्थ – (जस्सि) जिनमें (णाणमयी गंगा) ज्ञानमयी गंगा, (जोगसाहिणी) योगसाधिनी (जमुणा) जमुना और (बंभपुत्तं व बंभाभा ) ब्रह्मपुत्र के समान ब्रह्माभा है उन (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - जिनमें ज्ञानमयी गंगा, योगसाधिनी जमुना और ब्रह्मपुत्र के समान ब्रह्माभा है उन सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । णवीणं सिविणं दिट्ठ, णवीणं तवजोयगं । णवीणं सिहरप्फासं, वंदे सम्मदिसायरं ॥27॥ अन्वयार्थ – (णवीणं सिविणं दिट्ठ) नवीन सपनों को देखने वाले, (णवीणं तवजोयगं) नवीन तप योजक, (णवीणं सिहरप्फासं) नवीन शिखर का स्पर्श करने वाले (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । 360 :: सुनील प्राकृत समग्र

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