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सिद्धि अन्यथा नहीं होती मुत्तग्गहो हवे दिट्ठी, चिंतणं सम्मभावणा।
णाणब्भासंच चारित्तं, सिद्धी होदिण अण्णहा ॥32॥ अन्वयार्थ-(मुत्तग्गहो दिट्ठी) आग्रहमुक्त दृष्टि (चिंतणं सम्मभावणा) साम्यभावना का चिंतन (णाणब्भासं च चारित्तं) ज्ञानाभ्यास व चारित्र (हवे) हो तो(सिद्धी होदि) सिद्धि होती है (ण अण्णहा) अन्य प्रकार से नहीं।
भावार्थ-आग्रहमुक्त दृष्टि, आत्मभावना का चिंतन, ज्ञानाभ्यास व चरित्र होता है तो सिद्धि होती है, अन्य प्रकार से नहीं।
योग को साधो महप्पा सुहजोगेण, दुरप्पासुहजोगदो।
परमप्पा अजोगेण, तम्हा जोगं च साधय ॥33॥ अन्वयार्थ-(सुहजोगेण महप्पा) शुभयोग से महात्मा (दुरप्पासुहजोगदो) अशुभयोग से दुरात्मा (च) और (अजोगेण परमप्पा) अयोग से सदा परमात्मा होता है (तम्हा) इसलिए (जोगं) योग को (साधय) साधो।
भावार्थ-शुभ योग से महात्मा, अशुभ योग से दुरात्मा और अयोग दशा से जीव परमात्मा होता है। इसलिए योग को सम्हालो।
अल्प व शुद्ध भोजन हो सादत्थं भोयणं मूढं, जीवणत्थं अवस्सगं।
साहणत्थं किदो धम्मो, अप्पं सुद्धं तु भुंजह॥34॥ अन्वयार्थ-(सादत्थं भोयणं मूढं) स्वाद के लिए किया हुआ भोजन मूढ़ता है (जीवणत्थं अवस्सगं) जीवन के लिए आवश्यक है (साहणत्थं किदो धम्मो) साधना के लिए किया गया भोजन धर्म है (तु) किन्तु (अप्पं सुद्धं) अल्प व शुद्ध ही (भुंजह) खाओ।
भावार्थ-स्वाद के लिए भोजन करना मूढ़ता है, जीवित रहने के लिए भोजन करना आवश्यक है और साधना के लिए भोजन करना धर्म है। किन्तु भोजन अल्प और शुद्ध ही करना चाहिए।
आश्चर्य की बात धम्मत्थं विग्गह-कजं, धम्मत्थं धणसंगहो।
दुरग्गहो च धम्मत्थं, तदो किमच्छेरं परं ॥35॥ अन्वयार्थ-(धम्मत्थं विग्गहकजं) धर्म के लिए विग्रह कार्य (धम्मत्थं 344 :: सुनील प्राकृत समग्र