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अन्वयार्थ – (मज्जादिदो महागासो) महाकाश मर्यादित है ( मज्जादिदो महोदही) महोदधि मर्यादित है (य) और (मज्जादिदो महामेरू) महामेरु मर्यादित है। इसलिए (सदा) हमेशा (मज्जादं धारउ ) मर्यादा धारण करो ।
भावार्थ - महान आकाश मर्यादित है, महासागर मर्यादित है, महामेरु पर्वत भी मर्यादित है, अर्थात् महापुरुष मर्यादित होते हैं, हमें भी मर्यादा धारण करना चाहिए ।
श्रेष्ठतीर्थ है मनः शुद्धि
सेट्ठतित्थं मणोसुद्धी, सेट्ठसत्थं मणोसमं । सेट्ठदेवो सदाचारी, अप्पा सव्वेसु सेयसो ॥29॥
अन्वयार्थ – (सेट्ठ तित्थं मणोसुद्धी) मनः शुद्धि श्रेष्ठ तीर्थ है ( सेट्ठसत्थं मणोसमं) मन की समता श्रेष्ठ शास्त्र है ( सेट्ठदेवो सदाचारो ) सदाचार ही श्रेष्ठ देव है (अप्पा सव्वेसु सेयसो ) आत्मा सबसे श्रेष्ठ है।
भावार्थ - मन की शुद्धि श्रेष्ठ तीर्थ है, मन की समता श्रेष्ठ शास्त्र है, सदाचार श्रेष्ठ देव है और आत्मा सबसे श्रेष्ठ है ।
तो कार्य सफल होता है
चिंतणं चेतसा कुज्जा, पण्णाए णिण्णओ वरं । किरिया पोरुसत्थेण, कज्जं खु सहलं हवे ॥ 30 ॥
अन्वयार्थ - ( चेतसा चिंतणं) जागृत मन से चिंतन (पण्णाए णिण्णओ वरं )
प्रज्ञा से श्रेष्ठ निर्णय ( किरिया पोरुसत्थेण ) पुरुषार्थ पूर्वक क्रिया (कुज्जा) करे (कज्जं खु सहलं हवे) कार्य निश्चित सफल होता है।
भावार्थ - जागृत मन से चिंतन, प्रज्ञा से श्रेष्ठ निर्णय, पुरुषार्थ पूर्वक क्रिया करे तो निश्चितरूप से सफलता प्राप्त होती है ।
कैसा व्यक्ति सम्मान पाता है ?
पसण्णो मणसा होज्जा, कोमलो वचसा तहा ।
कज्जसीलो सरीरेण, माणं पावेज्ज सव्वदा ॥31॥
अन्वयार्थ - (पसण्णो मणसा) मन से प्रसन्न (कोमलो वचसा ) वचन से कोमल (कज्जसीलो सरीरेण ) शरीर से कार्यशील (होज्जा) होओ तो (माणं पावेज्ज सव्वदा ) हमेशा सम्मान पाओगे ।
भावार्थ - मन से प्रसन्न, वचन से कोमल तथा शरीर से कार्यशील बनो तो हमेशा सब जगह सम्मान पाओगे |
वयणसारो :: 343