Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 344
________________ आनन्द, सुख व दु:ख अप्पाणुभूदी आणंदो, खणिगं वत्थुजं सुहं। पमादप्पभवं दुक्खं, जं रुच्चइ तं चिंतह॥25॥ अन्वयार्थ-(अप्पाणुभूदी आणंदो) आत्मानुभूति आनन्द है (खणिगं वत्थुजं सुहं) वस्तुजन्य सुख क्षणिक है (पमादप्पभवं दुक्खं) प्रमादजनित दुःख है, अब तुम्हें (जं रुच्चइ तं चिंतह) जो रुचे वह चिंतन करो। भावार्थ-आत्मानुभूति आनन्द है, वस्तुजन्य सुख क्षणिक है, इन्द्रियसुख क्षणिक है, प्रमाद से दुःख होता है। तुम्हें जो अच्छा लगे वह पाने हेतु चिंतन करो। समस्या व दुःख में अन्तर समस्सा बज्झलोगत्था, दुक्खं अंतम्मणो-ठिदं। दुक्खमण्णं समस्सण्णा, दुवे चत्ता सुही हवे॥26॥ अन्वयार्थ-(समस्सा बज्झलोगत्था) समस्या बाह्य लोकस्थ है (दुक्खं अंतम्मणो ठिदं) दुःख अन्तर्मनस्थित है वस्तुतः (दुक्खमण्णं समस्सण्णा) दुःख अन्य है और समस्या अन्य है (दुवे चत्ता सुही हवे) दोनों को छोड़कर सुखी होओ। भावार्थ-जो बाहिरी लोक सम्बधी प्रतिकूलता हैं वे समस्याएँ कहलाती हैं और दुःख भीतरी मन में पैदा होता है। इसलिए समस्या और दुःख दो अलग चीजें हैं। दोनों को छोड़ सुखी होओ। ___ महानता दुर्लभ है महंतं णो महत्तेच्छु, बलवंतं णो सोसगो। बुहवंतं विवादी णो, दुल्लहो तारिसो णरो॥27॥ अन्वयार्थ-(महत्तेच्छं महंतं णो) महत्त्वेच्छुक महान नहीं है (सोसगो) शोषक (बलवंतं णो) बलवान नहीं है (विवादी) विवाद करनेवाला (बुहवंतं ) बुद्धिमान नहीं है (दुल्लहो तारिसो णरो) उस प्रकार का मनुष्य दुर्लभ है। भावार्थ-जो महत्त्व पाना चाहता है वह महान नहीं है। जो अन्य का शोषण करता है वह बलवान नहीं है और जो विवाद करता है वह बुद्धिमान नहीं है। वस्तुतः इन गुणों सहित निर्दोष मनुष्य मिलना दुर्लभ है। मर्यादा आवश्यक है मजादिदो महागासो, मजादिदो महोदही। मज्जादिदो महामेरू, मज्जादं धारउ सदा ॥28॥ 342 :: सुनील प्राकृत समग्र

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