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निर्मोहता से शुद्धि होती है णिम्मोहे हवदि सुद्धी, णिदोहे संतिणिम्मला।
सदोहे वड्ढदि सत्ती, अत्तलीणेहि मुत्ती य॥8॥ अन्वयार्थ-(णिम्मोहे) निर्मोह होने पर (सुद्धी) शुद्धि, (णिद्दोहे) निर्दोह होने पर (संतिणिम्मला) निर्मल शान्ति (सदोहे ) स्वद्रोह होने पर (सत्ति) शक्ति (वड्ढदि) वृद्धिंगत होती है (य) और (अत्तलीणेहि मुत्ती) आत्मलीन होने से मुक्ति (होदि) होती है।
भावार्थ-निर्मोह होने पर शुद्धि, निर्दोह अर्थात विरोध रहित होने पर निर्मल शान्ति बढ़ती है, स्वद्रोह अर्थात् सन्मार्ग में पुरुषार्थ होने पर शक्ति बढ़ती है और आत्मलीन होने पर मुक्ति मिलती है।
मूल पर ध्यान दो मूलुच्छेदो य रोगस्स, मूलसेको तरुस्स य।
मूलप्फासो समस्साणं, समाधाणं च होदि हि॥9॥ अन्वयार्थ-(रोगस्स) रोग के (मूलुच्छेदो) मूल का उच्छेद (तरुस्स) वृक्ष के (मूलसेको) मूल का सिंचन (मूलप्फासो समस्साणं) समस्यों का मूल का स्पर्श होना चाहिए (समाधाणं च होदि हि) समाधान निश्चित होता है।
भावार्थ-रोग के मूल का नाश हो तो आरोग्य अच्छा होगा, वृक्ष के मूल पर सिंचन हो तो उसका विकास होगा और समस्याओं के मूल पर ध्यान दिया जाय तो समाधान होगा।
पहले देख लें भग्गादो पुव्व-पोरुस्सं, कज्जा पुव्व-मणो-ठिदी।
सहाया पुव्व-ससत्ती, पासेजति मणीसिणो॥20॥ अन्वयार्थ-(भग्गादो पुव्व-पोरुस्सं) भाग्य से पूर्व पुरुषार्थ (कज्जा पुव्वमणो-ठिदी) कार्य से पूर्व मनस्थिति (सहाया पुव्व-ससत्ती) सहायकों से पूर्व स्वशक्ति (मणीसिणो) मनीषियों को (पासेजंति) देख लेना चाहिए।
भावार्थ-बुद्धिमानों को केवल भाग्य भरोसे पड़े रहने की अपेक्षा पुरुषार्थ की तरफ ध्यान देना चाहिए। कार्य के पूर्व मानसिक स्थिति पर ध्यान देना योग्य है और सहायक इकट्ठा करने से पूर्व स्वशक्ति भी परख लेना चाहिए।
दृष्टि का फेर मिच्छत्ती सुहदो दुक्खं, सम्मत्ती दुक्खदो सुहं।
णिक्कासेई सहावेण, वीतरागी समं हवे ॥21॥ 340 :: सुनील प्राकृत समग्र