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और उसे अपने स्वरूप की जरा भी खबर नहीं। अपना ज्ञानधन, ज्ञानपद व ज्ञानशरीर ही सम्यग्दृष्टि को अपना अनुभवमें आता है। बाकी तो सब धूल-धानी और हवापानी है, उसमें क्या निजत्व करना ।
श्रेष्ठतम पुरुषार्थ
णियरूवम्मि थिरक्तं, इणमो सेट्ठो य अस्थि पुरिसत्थो । दुक्खं खणे हि णस्सदि णाणसहावे थिरत्तेणं ॥63 ॥
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अन्वयार्थ – (णियरूवम्मि थिरत्तं) निजरूप में स्थिरता ( इणमो ) यह (सेट्ठ) श्रेष्ठ (पुरिसत्थो) पुरुषार्थ (अत्थि ) है (य) और ( णाणसहावे थिरत्तेणं) ज्ञानस्वभाव में स्थिर होने से (दुक्खं खणे णस्सेदि) दुःख क्षण में नष्ट हो जाता है।
अर्थ – निजस्वरूप में स्थिरता यह श्रेष्ठ पुरुषार्थ है, क्योंकि ज्ञानस्वभाव में स्थिर होने से क्षणभर में दु:ख नष्ट हो जाता है।
व्याख्या - ज्ञान - दर्शन स्वभाव वाले निजात्मतत्त्व को अच्छी तरह जानकर उसमें ही स्थिरता धारण करना, यह श्रेष्ठ पुरुषार्थ है । क्रोधादि के उदय में कषायभावों का होना, रागादि के उदय में परपदार्थों में ममत्व होना अनादिकाल से चल रहा है, जबकि यह जीव का स्वभाव नहीं, अपितु कर्मरूप पुद्गल द्रव्य से प्रेरित जीव की विभाव परिणति है । विभावों में स्थिरता तो खोटा पुरुषार्थ है, जबकि निजरूप में स्थिरता सच्चा और श्रेष्ठ पुरुषार्थ है । ऐसा करने से क्षणभर में ही आकुलताव्याकुलतारूप दुःखों का अभाव हो जाता है। बस इसकी लगन, पकड़ व सही पहचान होना चाहिए।
ज्ञानी परमार्थ साधते हैं
लोगिगजणा लोगिगं, करेंति भवब्भमणकारीपुरुसत्थं । पत्ता देह धम्मं च णाणी साहेंति परमत्थं ॥64 ॥
अन्वयार्थ – (लोगिगजणा लोगिगं) लौकिकजन लौकिक ( भवब्भमणकारी पुरुसत्थंकरेंति) भव - भ्रमणकारी पुरुषार्थ को करते हैं [ जबकि ] देह-धम्मं च पत्ता ) देह व धर्म को पाकर ( णाणी) ज्ञानी (परमत्थं) परमार्थ को (साहेंति) साधते हैं ।
अर्थ - लौकिकजन भव- भ्रमणकारी पुरुषार्थ को करते हैं, जबकि ज्ञानी देह व धर्म को पाकर परमार्थ साधते हैं।
व्याख्या - संसारी लोकजन धन कमाना, मकान बनाना, गाड़ी खरीदना, बच्चों का विवाह करना आदि तरह-तरह के लौकिक पुरुषार्थ करते हैं । इनमें निरंतर राग-द्वेष होते हैं, आत्म-अस्थिरता बढ़ती है; जिससे कर्मबंध होता है और कर्मबंध से संसार भ्रमण जारी रहता है, इसलिए इसे सांसारिक पुरुषार्थ कहा है। इसके
282 :: सुनील प्राकृत समग्र