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यह शरीर भी नाशवान है सरीरमिणमच्चंतं, पूदिं बीभच्छ-णस्सरं।
रोयायरं दुहट्ठाणं, देहत्थं को किलिस्सदि॥32॥ अन्वयार्थ-(इणं सरीरं) यह शरीर (अच्चंतं) अत्यन्त (पूदिं बीभच्छ-णस्सरं) दुर्गंधित, वीभत्स, नश्वर है (रोयायरं दुहट्ठाणं) रोगों का घर और दुःखोंका स्थान है (देहत्थं को किलिस्सदि) ऐसे शरीर के लिए कौन क्लेश करता है।
भावार्थ-यह शरीर अत्यन्त दुर्गंधित, वीभत्स, नश्वर रोगों का घर व दु:खों का स्थान है, इस देह के लिए कौन ज्ञानी संक्लेश करता है? अर्थात् कोई नहीं।
शरीर का संसर्ग भी बुरा णवं च सुंदरं वत्थु, पूर्व वा जं णिसग्गदो।
देहसंसग्गमेत्तेणं सिग्धं हि असुहं हवे ॥33॥ अन्वयार्थ-(णवं च सुंदरं वत्थु) नई और सुंदर वस्तु (वा) अथवा (जं) जो (णिसग्गदो) निसर्ग से (पूदं) पवित्र है, वह भी (देहसंसग्गमेत्तेणं) देह संसर्ग मात्र से (सिग्धं हि असुहं हवे) शीघ्र ही अशुचि हो जाती है।
भावार्थ-जो नई और सुंदर अथवा स्वभाव से ही पवित्र वस्तु है, वह भी देह के संसर्ग मात्र से शीघ्र ही अशुचि हो जाती है, ऐसा यह शरीर है।
विषय कौन चाहता है? को इच्छेदि सरीरत्थं, विसेव विसए अहो।
उवभुत्तं विसं हंति, विसया सरणादो य॥34॥ अन्वयार्थ-(अहो) अहो! (सरीरत्थं) शरीर के लिए (विसेव विसए) विष के समान विषयों को (को इच्छेदि) कौन चाहता है (दु) जबकि (उवभुत्तं विसं हंति) विष खाए जाने पर मारता है (य) और (विसया सरणादो) विषय स्मरण मात्र से।
भावार्थ-विष के समान विषयों को ऐसे शरीर के लिए कौन बुद्धिमान चाहता है? जहाँ विष तो खाए जाने पर मारता है, जबकि विषय स्मरण मात्र से भी मारते हैं।
विषयेच्छा से नुकसान अच्चंतं वड्ढदि गिद्धी, णस्संति संति-धम्मणो।
विवेगो विलयं जादि, विसएहिं वंचिदप्पणं ॥35॥ अन्वयार्थ-(विसएहिं वंचिदप्पणं) विषयों से वंचित आत्माओं के (अच्वंतं) अत्यन्त (गिद्धी) गृद्धता (वड्ढदे) बढ़ती है (संति धम्मणो णस्संति) शांति और 314 :: सुनील प्राकृत समग्र