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भावालोयणा (भावालोचना, उपजाति छन्द)
नवदेवता-स्मरण
घादीविमुत्तं अरिहंत - देवं, सिद्धं विसुद्धं च पणट्ठकम्मं । सूरं वज्झाय-मुणिं सुधम्मं, जिणालयं चेइयं वा णमामि ॥1 ॥
अन्वयार्थ - (घादीविमुत्तं) घातिकर्म रहित ( अरिहंत - देवं) अरिहंत देव को (पणट्ठकम्मं) अष्टकर्म रहित (विसुद्धं सिद्धं) विशुद्ध सिद्ध को ( सूरिं उवज्झायमुणिं सुधम्मं) आचार्य, उपाध्याय साधु सुधर्म को ( जिणालयं ) जिनालय को (च) और चैत्य तथा जिनागम को (णमामि ) मैं नमन करता हूँ ।
अर्थ - इस छन्द में जिनशासन कथित नव देवताओं को नमन किया गया है। चार घातिया कर्मों से विमुक्त अरिहंत प्रभु, आठ कर्मों से रहित विशुद्ध सिद्ध प्रभु आचार्य, उपाध्याय, साधु, सुधर्म, जिनालय, जिन चैत्य तथा 'च' शब्द से जिनागम को मैं नमन करता हूँ।
जिनागम - स्मरण
वीरा गिरित्तो य विणिग्गदा जा, गोदमगणिंदादिगंथिदा तां । सूरीहि लिहिदा वाणिं च णत्ता, भावालोयणं वोच्छामि सुहदं ॥2 ॥
अन्वयार्थ – (जा) जो ( सम्मदिगिरीए) सन्मति भगवान रूपी पर्वत से (विणिग्गदा) विनिर्गत है, (गोदम गणिंदादि गंथिदा) गौतम गणधर आदि द्वारा ग्रंथित है (य) और (सूरिहि लिहिदा ) आचार्यों द्वारा लिखित है (तां) उस (वाणिं) वाणी को ( णत्ता) नमन करके (मैं) (सुहदं) सुखद (भावालोयणं) भावालोचना को (वोच्छामि ) कहता हूँ।
अर्थ - जो सन्मति अर्थात् महावीर रूपी पर्वत से निकली है, गौतम आदि गणधरों द्वारा गूंथी गई है तथा आचार्यों द्वारा लिखी गई है, उस जिनवाणी को नमन करके मैं सुख प्रदायक भाव-आलोचना नामक सामायिक पाठ को कहता हूँ (कहूँगा) ।
प्रतिज्ञा वाक्य
लहू वि बालो अदिचंचलो य, मादासमीवे य कहेदि दोसे।
तहेव सच्चं भयवं! कहेमि, मणे ठिदं साणुणयं तवग्गे ॥3 ॥
भावालोयणा :: 323