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आत्मध्यान ही उत्तम ध्यान है उत्तमं अप्पझाणं हि, परमेट्ठीण मज्झिमं।
अधमं देह-झाणंच, कामादीणं जहण्णयं ॥25॥ अन्वयार्थ-(अप्पझाणं हि उत्तम) आत्मध्यान ही उत्तम ध्यान है, (परमेट्ठीणं मज्झिम) परमेष्ठियों का ध्यान मध्यम है,(देह झाणं अधमं) शरीर का ध्यान अधम है (च) और (कामादीणं जहण्णयं) कामादि का ध्यान जघन्य है।
भावार्थ-आत्मध्यान ही वस्तुतः उत्तम ध्यान है, परमेष्ठियों का ध्यान मध्यम ध्यान है, शरीर का ध्यान जघन्य ध्यान है, जबकि काम-क्रोधादि का ध्यान जघन्यतम दुःखदायक ध्यान है।
वे कल्याणार्थी हैं परदव्वेसु जम्मंधा, इत्थीमत्तेसु संडगा।
परणिंदासु मूगा जे, कल्लाणत्थी य ते णरा ॥26॥ अन्वयार्थ-(परदव्वेसु जम्मंधो) परद्रव्यों में जन्मांध(इत्थीमत्तेसु संडगा) स्त्रीमात्र में नपुंसक तुल्य तथा (जे परणिंदासु मूगा) जो परनिंदा में मूक के समान हैं (ते) वे (कल्लाणत्थी णरा) कल्याणार्थी मनुष्य हैं।
भावार्थ-जो पर-पदार्थों में अंधे के समान, स्त्रीमात्र में नपुंसक के समान तथा परनिंदा में गूंगे के समान प्रवृत्ति करते हैं, वे कल्याणार्थी मनुष्य हैं।
वे कल्याणार्थी नहीं हैं जे मयंधा ण जाणंति, हिदाहिदं च अप्पगं।
विजाविणयहीणा य, कल्लाणत्थी ण ते णरा॥27॥ अन्वयार्थ-(जे मयंधा) जो मदांध (अप्पगं) अपने (हिदाहिदं) हिताहित को (ण जाणंति) नहीं जानते हैं (च) तथा (विजा विणयहीणं य) विद्या और विनय विहीन हैं, (ते) वे (कल्लाणत्थी) कल्याणार्थी (णरा) मनुष्य (ण) नहीं हैं।
भावार्थ-जो मदांध मनुष्य अपना हित-अहित नहीं जानते तथा विद्या और विनय विहीन हैं, वे कल्याणार्थी (हितेच्छुक मुमुक्षु) नहीं हैं।
क्योंकि कषायी स्वहित को नहीं जानते कोह-माणादि-संजुत्तो, माया-लोह-विडंविदो।
सहिदं व जाणादि, जिणदेवेण भासिदं ॥28॥ अन्वयार्थ-(कोह-माणादि संजुत्तो) क्रोध मानादि से संयुक्त (मायालोहविडंविदो) माया लोभ से विडंवित जीव (जिणदेवेण भासिदं) जिनेन्द्र देव द्वारा भाषित (सहिदं णेव जाणादि) स्वहित को नहीं ही जानते।
312 :: सुनील प्राकृत समग्र