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णियप्पज्झाण-सारो
(निजात्मध्यानसार)
मंगलाचरण वंदित्तु सव्व-सिद्धे य, णाणादि-गुणसंजुदे।
णियप्पज्झाण-सारं च, णियझाणत्थं वोच्छमि॥1॥ अन्वयार्थ-(णाणादि-गुणसंजुदे) ज्ञानादि गुण संयुक्त (सव्व-सिद्धे य) सभी सिद्धों के लिए (वंदित्तु) वंदना करके (णियप्पज्झाणसारं) निजात्मध्यानसार को (णियज्झाणत्थं वोच्छमि) आत्मध्यान की सिद्धि के प्रयोजन से कहूँगा।
भावार्थ-ज्ञानादि अनंतगुणों से सहित सभी सिद्धों के लिए नमस्कार करके आत्मध्यानरूप प्रयोजन की सिद्धि के लिए मैं निजात्मध्यानसार नामक ग्रंथ को कहूँगा।
ध्यान की परिभाषा जं णाणं तं चिय झाणं, चिंता एयग्गरोहणं।
अंतो मुहुत्त-कालं च, तंवा सव्वत्थ वट्टदे ॥2॥ अन्वयार्थ-(जं णाणं तं चिय झाणं) जो ज्ञान वही ध्यान है [अथवा] (चिंता एयग्गरोहणं) एकाग्रचिंता का निरोध ध्यान कहलाता है [वह] (अंतोमुहत्तंकालं च) अंतर्मुहूर्त काल तक होता है (तंवा) अथवा (सव्वत्थ वट्टदे) सभी को सदैव होता है।
भावार्थ-जो स्थिरता रूप ज्ञान है, वही ध्यान है, अथवा एकाग्रचिंता निरोध रूप ध्यान कहलाता है। वह ध्यान अंतर्मुहूर्त काल तक होता है अथवा सब जीवों को कथंचित हमेशा होता है।
ध्यान के भेद झाणं चउव्विहं अस्थि, अट्ट-रुदं च धम्मयं ।
सुक्कं पुव्वे य दुक्खस्स, परे मोक्खस्स हेदुओ॥३॥ अन्वयार्थ-(झाणं चउव्विहं अत्थि) ध्यान चार प्रकार का है (अट्ट-रुदं च धम्मयं सुक्कं च) आर्त रौद्र, धर्म व शुक्ल (पुव्वे य दुक्खस्स) शुरु के दो दुःख के
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