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राग-द्वेष का त्याग सम्यक्चारित्र है
वत्थूणं जाणित्ता, उप्पादव्वयधुवत्त-संजुत्तं । राग देस-विजहणं, सम्मचरित्तं च जाण णिच्छयदो ॥96 ॥
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अन्वयार्थ ( उप्पादव्वय धुवत्त - संजुत्तं ) उत्पाद व्यय ध्रुवत्व संयुक्त (वत्थूणं जाणित्ता) वस्तुओं को जानते हुए (रागद्वेस विजहणं) राग-द्वेष त्यागना ( णिच्छयदो) निश्चय से ( सम्मचरित्तं च जाण) सम्यक्चारित्र जानो ।
अर्थ – उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य संयुक्त समस्त वस्तुओं को जानते हुए भी रागद्वेष का त्याग करना निश्चय से सम्यक्चारित्र है ।
व्याख्या - वस्तु की नई पर्याय की उत्पत्ति होना उत्पाद है, पुरानी पर्याय का नाश होना व्यय है तथा वस्तु का वस्तुरूप से बने रहना ध्रौव्य है । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त वस्तुओं को जानते हुए भी राग-द्वेष का त्याग करना निश्चय सम्यक्चारित्र है । व्रत - संयम आदि धारण करना व्यवहार चारित्र है ।
रत्नत्रय जयवंत हो
भव-भुयग णागदमणी, दुक्ख - महादावसमणजलवुट्ठी । मुत्तीसुहामिदजलही, जयदु य रयणत्तयं सम्मं ॥97 ॥
अन्वयार्थ – (भव - भुयण णागदमणी) भवभुजग नागदमनी, (दुक्ख महादावसमणजलवुट्ठी) दु:ख महातापशमन जलवृष्टि (य) और (मुत्ती - सुहामिद - जलही) मुक्ति सुखामृत जलधि (सम्मं) सम्यक् ( रयणत्तयं) रत्नत्रय (जयदु) जयवंत हो ।
व्याख्या - जो संसार रूपी सर्प के लिए निर्बिष करने में नागदमनी के समान है, दुःखरूपी महाताप को शांत करने में शीतल जलवृष्टि के समान है तथा मुक्तिसुखरूपी अमृत की उत्पत्ति के लिए जो समुद्र के समान है, ऐसा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का एकत्रित रूप रत्नत्रय जयवंत होवे ।
मोक्ष के लिए यह करो
दुक्खं सह जयणिदं, थोवं भुंजेह मा बहुं जंप | झाणज्झयणे य रदिं, कुणिज्ज णिच्चं विमोक्खस्स ॥98 ॥
अन्वयार्थ – (विमोक्खस्स) मोक्ष के लिए ( दुक्खं सह ) दुःख सहो ( णिदं जय) निद्रा को जीतो (थोवं भुंजेह) थोड़ा खाओ (मा बहुं जंप ) बहुत मत बोलो (च) और (णिच्वं) नित्य ( झाणज्झयणे रदिं कुणिज्ज) ध्यान - अध्ययन में रति करो । अर्थ - मोक्ष प्राप्ति के लिए दुःखों को सहो, निद्रा को जीतो, भोजन थोड़ा जीमो, बहुत मत बोलो और निरंतर ध्यान - अध्ययन में रत रहो ।
अज्झप्पसारो : : 299