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व्याख्या - स्पर्शनादि पंचेन्द्रिय-विषयों की सामग्री की प्राप्ति संरक्षण, संवर्धन व भोगने की जो इच्छा है, वह व्याकुलता है। यह व्याकुलता दुःख ही है। इससे अज्ञानतावश मोही जीव दुःख या प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ खेद अथवा हर्षरूप वर्तता है। अपने सुख स्वभाव पर कुछ भी दृष्टि नहीं देता, जबकि सुख वस्तुओं में नहीं निजात्मा में ही है।
खेद व हर्ष को छोड़ो
चत्ता खेदं हरिसं, णियप्परूवस्स पुण विचिंतेज्जा । किं आसि किं होहिमि, अप्पसरूवं च विसरित्ता ॥92 ॥
अन्वयार्थ – (खेदं हरिसं चत्ता ) खेद - हर्ष को छोड़कर (पुण) पुनः (णियप्परूवस्स) निजात्मरूप का ( विचिंतेज्जा) चिंतन करो [ कि] (अप्पसरूवं ) आत्मस्वरूप को भूलकर (किं आसि) क्या था (च) और (किं होहिमि ) क्या होऊँगा ?
अर्थ - हे जीव ! खेद व हर्षकारक व्याकुलता को छोड़कर निजात्मस्वरूप का विचार करो, विचारो कि आत्मस्वरूप को भूलकर मैं क्या था और क्या होऊँगा ।
व्याख्या - हे चैतन्य प्रभु आत्मन् ! पंचेन्द्रिय विषयों की हर्ष या खेद कारक व्याकुलता को छोड़कर निजात्मस्वरूप का चिंतन करो। क्योंकि पंचेन्द्रियों के भोग जब तक न मिलें तब तक तो आकुलता रहती ही है, प्राप्त हो जाने पर, भोगते समय भी आकुलता रहती है। जबकि आत्मस्वभाव में सदा अनाकुलता ही है। आकुलता हमारे अज्ञान की संतान है । अनाकुलता वाले आत्मस्वरूप को भूलकर यह जीव क्या-क्या नहीं बना? और भविष्य में क्या-क्या नहीं बनेगा? इसका विचार करो ।
हे जीव ! यदि तुम भूत की दुःखदायक अवस्थाओं का विचार कर भविष्य में सुख चाहते हो, तो वर्तमान में नित्य ही आत्मस्वरूप का लक्ष्य करो ।
आत्मा ज्ञानस्वभाव वाला है
धण-धण्णादि अण्णा, इत्थीपुत्तादिकुडुंब सम्बन्धा । अण्णो देहो कम्मं, अप्पा णाणादिभावसंपण्णो ॥ 93 ॥
अन्वयार्थ – (धण-धण्णादि) धन-धान्यादि ( इत्थीपुत्तादिकुडुंब सम्बन्धा) स्त्री
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पुत्रादि कुटुब सम्बन्ध (अण्णा) अन्य हैं ( अण्णो देहो कम्मं) देह व कर्म अन्य हैं [जबकि ] ( अप्पा णाणादि भाव संपण्णो ) आत्मा ज्ञानादि भाव वाला है।
अर्थ - धन-धान्यादि, स्त्री पुत्रादि कुटुम्बसम्बन्ध तथा देह व कर्म भी आत्मा से अन्य हैं, क्योंकि आत्मा ज्ञानादिगुणों से संपन्न है ।
व्याख्या– धन-धान्य आदि पुद्गल द्रव्य ज्ञान रहित होने से अजीव हैं, स्त्री
अज्झप्पसारो :: 297