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व्याख्या-सहजता से प्राप्त किया गया ज्ञान दुःख आने पर काम नहीं देता। अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए दुःख सहते हुए भी ज्ञान प्राप्त करो, निद्रा कम लो, दिन में मत सोओ, रात में भी सीमित निद्रा लो, भोजन सात्विक व सीमित ग्रहण करो, बहुत नहीं बोलो तथा निरंतर ध्यान-अध्ययन में तल्लीन रहो। उपयोग को मैला मत होने दो।
आत्म भावना बिना व्रतादि निरर्थक हैं जह पत्तविणा दाणं, पुत्तविणा बहुधणं च चित्तविणा।
भत्ती तह आदभावण-विणा, वदादि यणिरत्ययं जाणे ॥99॥ अन्वयार्थ-(जह पत्त विणा दाणं) जैसे पात्र बिना दान (पुत्त विणा बहुधणं) पुत्र बिना बहुत धन (च) और (चित्त विणा भत्ती) चित्त बिना भक्ति है (तह) उसी प्रकार (आदभावण-विणा वदादि य णिरत्थयं जाणे) आत्मभावना बिना व्रतादि निरर्थक जानो।
अर्थ-जिस प्रकार पात्र बिना दान, पुत्र बिना बहुत धन और चित्त बिना भक्ति निरर्थक है, उसी प्रकार आत्मभावना बिना व्रतादि निरर्थक जानो।
व्याख्या-प्रस्तुत गाथा में भव्यजीवों को आत्मभावना भाने की तीव्र प्रेरणा देते हुए कहा कि यदि तुम निजात्मतत्त्व की भावना नहीं करते हो, तो तुम्हारे व्रत, संयम, तप व अध्ययन आदि उसी प्रकार निरर्थक है, जिस प्रकार मोक्षमार्गी पात्रों के बिना दान, श्रेष्ठ पुत्रके बिना धन-संपदा तथा चित्त के बिना पूजा-भक्ति या जाप्य निरर्थक है। यदि जीवन व व्रत-संयम को सार्थक करना चाहते हो तो आत्मभावना भाओ। वैसे जैनशासन के व्रत-चारित्र का इतना अधिक महत्त्व है कि यदि अभव्य भी पूरी शक्तिसे धारण-पालन करे, तो वह भी नौवें ग्रैवेयक तक जा सकता है, किन्तु ग्रैवेयक की आयु पूर्ण होने पर पुनः संसार परिभ्रमण प्रारंभ हो जाता है।
आत्मानभव का फल जो वेददि अप्पाणं, तक्काले हणदि सोग-संतावं।
खविदूण सव्वकम्मं, अंते पावेदि मोक्ख सुहं 100॥ अन्वयार्थ-(जो) जो (अप्पाणं वेददि) आत्मा का वेदन करता है [वह] (तक्काले) तत्काल (सोग-संतावं) शोक-संताप को (हणदि) नष्ट करता है (अंते) अंत में (खविदूण सव्वकम्म) सर्व कर्मों को नष्टकर (मोक्ख सुहं पावेदि) मोक्षसुख को पाता है।
अर्थ-जो आत्मा का वेदन करता है, वह तत्काल ही शोक-संताप को नष्ट करता है और अंततः सभी कर्मों को नष्ट कर मोक्षसुख को पाता है। 300 :: सुनील प्राकृत समग्र