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व्याख्या - समयसारादि आत्मतत्त्व के व्याख्याता विशिष्ट शास्त्रों का नयनिक्षेप पूर्वक अध्ययन करने से जिसे सच्ची समझ प्रगट हुई है। ऐसा ज्ञानी जब आत्मतत्त्व का वेदन करता है, तब तत्काल ही उसके शोक व संताप आदि का अभाव होता है। इस आत्मभावना के बल से वह आत्मस्थिरता के काल को बढ़ाता हुआ, अंततः कुछ ही भवों में सर्वकर्मों को नष्ट कर अक्षय सुखधाम निज विमुक्त आत्मा (मोक्ष) को उपलब्ध हो जाता है।
वह सीखो जिससे कर्म क्षय हो
सुदस्स णत्थि अंतो य, आऊ. - अप्पं बलं पि दुम्मेहा । तं चैव दु सिक्खेज्जा, जं जर-मरणं खयं कुणदि ॥101 ॥
अन्वयार्थ – (सुदस्स णत्थि अंतो) श्रुत का अन्त नहीं है (आऊ - अप्पं) आयु अल्प है (बलं पि) बल भी अल्प है ( दुम्मेहा) मेधा मंद है (दु) इसलिए (तं चेव सिक्खेज्जा) वह ही सीखो (जंजर - मरणं खयं कुणदि) जो जन्म-मरण का क्षय करता है। अर्थ - श्रुतज्ञान का अंत नहीं है, आयु अल्प है, बल भी अल्प है, मेधा मंद है, इसलिए वह ही सीखो जो जन्म-मरण का क्षय करता है ।
व्याख्या - जितने कहने योग्य पदार्थ हैं, उनका अनन्तवाँ भाग भगवान जिनेन्द्र कहा है। जितना दिव्यध्वनि में कहा है, उसका अनंतवां भाग शास्त्रों में लिखा गया है। श्रुतज्ञान की परम्परा में अनेक शास्त्र लुप्त हो गए । कालान्तर में अनेक शास्त्र धर्मोन्मादी जनों के द्वारा नष्ट किए गए। इतना सब होने के बाद भी जो सारभूत श्रुत अवशिष्ट है, वह अत्यन्त विस्तृत है । इसलिए इस थोड़ी आयु वाले जीवन में, अल्पक्षमता व बुद्धि की मंदता को देखते हुए वह ही ज्ञान (शास्त्र) सीख लेना चाहिए, जो जन्म-मरण का क्षय करता है। शेष व्यर्थ के वचनालाप ( थोथे ज्ञान) से क्या लाभ?
यह ग्रन्थ स्व-पर के कल्याण के लिए लिखा है अज्झप्पसारो किदो, णियप्पसुद्धीए जणाणबोहत्थं ।
पागद वित्थारत्थं, इणं सोधयंतु सण्णाणी ॥102 ॥
अन्वयार्थ – (णियप्पसुद्धीए) निजात्मशुद्धि (जणाण- बोहत्थं) मनुष्यों के बोध (वा) तथा (पागदवित्थारत्थं ) प्राकृत - विस्तार के लिए (अज्झप्पसारो किदो ) अध्यात्मसार किया गया है ( सण्णाणी) सम्यग्ज्ञानी ( इणं सोधयंतु) इसे शोधें ।
अर्थ—यह अध्यात्मसार ग्रन्थ निजात्मशुद्धि, मनुष्यों के बोध तथा प्राकृतभाषा के विस्तार के लिए लिखा गया है, सम्यग्ज्ञानी विद्वान् इसका शोधन करें ।
व्याख्या - जिसमें कुन्दकुन्द, योगेन्दु, पूज्यपाद आदि महान आचार्यों के ग्रन्थों का सार आया है, ऐसा यह अध्यात्मसार नामक ग्रन्थ आचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) के पट्टशिष्य आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी के पट्टाधीश तपस्वी
अज्झप्पसारो :: 301