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सम्राट आचार्यश्री सन्मतिसागर जी के पट्टाधीश प्राकृताचार्य सुनीलसागर जी ने आत्मशुद्धि, भव्यजीवों के बोध तथा शौरसेनी प्राकृतभाषा के विस्तार के लिए लिखा है। शौरसेनी प्राकृत प्राचीन शास्त्रों की मूलभाषा है, इसे जैनों की भाषा भी कह सकते हैं। इस कृति का सम्यग्ज्ञानी विद्वज्जन शोधन करें।
।आइरिय-सुणीलसागर किदो अज्झप्पसारो समत्तो। । आचार्य सुनीलसागर कृत अध्यात्मसार समाप्त हुआ।
302 :: सुनील प्राकृत समग्र