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करो कि ये सब पुद्गल की संरचनाएं हैं। ये न तो स्वयं शरण- भूत हैं और न शरण देने में सक्षम। ये निरंतर विनाशशील अशाश्वत है, जबकि मैं स्वयं के लिए शरणभूत तथा शाश्वत आत्मतत्त्व हूँ। जब मैं धन या देहादि हूँ ही नहीं, तब उन पर ममत्व भी क्या करना; ऐसा विचार करो ।
निजभावों से जीव का बंध-मोक्ष
भववड्ढी भवहाणी, णियल्लभावेण होदि बंधो वा । रयणत्तयभावेण दु, जीवो मोक्खं च पावेदि ॥88॥
अन्वयार्थ– (णियल्लभावेण ) निज के भावों से ( भववड्ढी भवहाणी ) भववृद्धि भवहानी (वा) अथवा (बंधो) बंध (होदि) होता है (दु) किन्तु ( रयणत्तयभावेण ) रत्नत्रय भाव से (जीवो मोक्खं च पावेदि) जीव मोक्ष पाता है ।
अर्थ-जीव निजभावों से भववृद्धि, भवहानि अथवा बंध करता है, किन्तु रत्नत्रयात्मक भावों से मोक्ष पाता है।
व्याख्या - यह जीव निज के संक्लेश रूप अशुभभावों से अशुभकर्मों का बंध करके अशुभ फलरूप भववृद्धि कर लेता है । विशुद्धि रूप शुभभावों से शुभकर्मों का बंध करके शुभ फल रूप भव हानि अर्थात् संसार की अल्पता कर लेता है। इन शुभाशुभ भावों से यह जीव हीनाधिक रूप में कर्मबंध ही करता है। जबकि निश्चय-रत्नत्रयात्मक भाव से यह जीव मोक्ष पाता है।
योग व कषायों को छोड़ो
दि णो इच्छसि बंधं, जोग- कसायं च विभावणं मुंच । इच्चेव जदि सिज्झदि, तो सिज्झहिदि य सयलकज्जं ॥89 ॥
अन्वयार्थ - (जदि) यदि (बंधं) बंध को ( णो इच्छसि ) नहीं चाहते हो [तो] (जोग- कसायं च विभावणं मुंच) योग और कषायरूप विभावों को छोड़ो (जदि) यदि (इच्चेव) इतना यह (सिज्झदि) सिद्ध हो जाता है, (तो) तो (सयलकज्जं) समस्त कार्य (सिज्झज्जीय) सिद्ध हो जाएंगे ।
अर्थ - हे जीव ! यदि तुम बंध को नहीं चाहते हो तो योग व कषायरूप विभावों को छोड़ो। यदि यह इतना कार्य सिद्ध हो जाता है तो समस्त कार्य सिद्ध हो जाएंगे।
व्याख्या— हे चैतन्यात्मन ! यदि तुम ज्ञानावरणादि कर्मों के बंध से बचना चाहते हो, तो मन, वचन, कायरूप योगों की चंचलता तथा क्रोध, मान, माया, व लोभ युक्त भावों की मलिनतारूप कषायों का त्याग करो। क्योंकि कषायों से रंजित चित्त वाला मनुष्य तत्त्व को नहीं जानता, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि काले
अज्झप्पसारो : : 295