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समभाव से युक्त है और समभाव मोह तथा क्षोभ से रहित परिणामों की स्थिरता को कहा है। ऐसे चारित्र से ही जीव को स्वात्मोपलब्धि होती है और स्वात्मोपलब्धि ही सिद्धि है।
साम्यभाव उत्कृष्ट चारित्र है
उक्किट्ठे चारित्तं, समदा मोक्खस्स अत्थि आधारो । समदा जेण य सिद्धा, पावदि सो सासदं सोक्खं ॥84 ॥
अन्वयार्थ - (समदा) समता (उक्किट्ठे चारित्तं) उत्कृष्ट चारित्र है ( मोक्खस्स आधारो अत्थि) मोक्ष का आधार है (य) और (जेण) जिसने (समदा सिद्धा) समता साध ली (सो) वह (सासदं सोक्खं) शाश्वत सुख को (पावदि) पाता है।
अर्थ - समता उत्कृष्ट चारित्र है, मोक्ष का आधार है और जिसने समता साधली, वह शाश्वत सुख को पाता है ।
व्याख्या - भेदविज्ञान पूर्वक जो साम्यभाव प्रगट होता है, वह जीव की मोह वक्षोभ से रहित वीतराग अवस्था है । यह वीतरागता ही मोक्ष का आधार है, विषयकषायों से ग्रसित व्यक्ति नहीं। जिसने सम्यक् समता को भली प्रकार सिद्ध कर लिया है, वह शाश्वत सुखधाम मोक्ष को प्राप्त करता है । इसलिए समता - साधने का प्रयत्न प्रत्येक आत्मार्थी को करना चाहिए ।
परद्रव्य में नहीं ज्ञान में सुख है
परदव्वे णत्थि सुहं, इंदिय-दारेहिं भासदे दु सुहं। णासरूवे हि सुहं, सो जीवस्स णियगुणो अत्थि ॥85 ॥
अन्वयार्थ— (परदव्वे णत्थि सुहं) परद्रव्य में सुख नहीं है, (दु) किन्तु (इंदिय-दारेहिं) इन्द्रिय द्वारों से ( सुहं भासदे) सुख भासता है ( णाणसरूवे हि सुहं) ज्ञानस्वरूप में ही सुख है, (सो) वह ( जीवस्स णियगुणो अत्थि ) जीव का निजगुण है।
अर्थ - परद्रव्य में सुख नहीं है, इन्द्रियों से सुख भासता है। वस्तुतः सुख तो ज्ञान स्वरूप में है, क्योंकि वह जीव का निजगुण है ।
व्याख्या - इन्द्रिय द्वारों से पर-पदार्थों के ग्रहण करने पर जो सुख महसूस होता है, वस्तुत: वह वस्तु से उत्पन्न नहीं हुआ, अपितु सुख गुण तो जीव का निजगुण है। परपदार्थो में रागयुक्त प्रवृत्ति होने पर सुख तथा द्वेषयुक्त प्रवृत्ति होने पर दुःख भाषित होता है। ये सुख व दुःख दोनों आत्मा के सुखगुण की वैभाविक पर्याएँ है । आत्मानुभव अथवा अरहंत - सिद्ध दशा का सुख स्वाभाविक पर्याय है ।
यह जीव जब तक पर- पदार्थों से सुख-दुःख की मान्यतारूप बुद्धि का त्याग
अज्झप्पसारो : : 293