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व्याख्या - विश्व में छह द्रव्य व्याप्त हैं । द्रव्यों में गुण व पर्याय रहते हैं । बिना द्रव्य के गुण, बिना गुण के द्रव्य, बिना पर्याय के द्रव्य-गुण व बिना गुण के द्रव्य - पर्याय नहीं होती है । प्रत्येक द्रव्य में प्रतिपल उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यत्व जारी है।
पर्यायरूप से जो-जो नया उत्पन्न होता है, वह नाश को अवश्य प्राप्त होता है, क्योंकि किसी भी द्रव्य की कोई भी पर्याय शाश्वत नहीं है । इसलिए पर्यायदृष्टि छोड़कर द्रव्यदृष्टि करो। पर पदार्थों के राग को छोड़ो और उदासीनता धारण करो । राग- - द्वेष से सुख - दुःख स्वयं भोगता है कस्सत्थि तइ हो ? तुज्झ चिंतावियप्पो कस्सत्थि ? । किच्चा रागद्देसं, सयं पि भुंजेसि सुह- दुक्खं ॥80 ॥
अन्वयार्थ – (कस्सत्थि - तइ हो ) तुमसे किसको स्नेह है (य) और (कस्स) किसको (तुज्झ ) तेरा ( चिंतावियप्पो अत्थि ) चिंता विकल्प है (सयं) स्वयं ( रागद्वेसं किच्चा) राग-द्वेष करके ( सुह- दुक्खं) सुख-दुःख (भुंजेसि) भोगता है ।
अर्थ - हे जीव ! किसको तुमसे स्नेह है और किसको तेरी चिंता है ? तू स्वयं ही राग-द्वेष करके सुख - दुःख भोगता है।
व्याख्या– वस्तुतः किसी को किसी से स्नेह नहीं हैं। किसी को किसी की चिंता नहीं है। अपने-अपने स्वार्थवश कार्य सिद्धि हेतु एक-दूसरे से राग देखा जाता है । प्रत्येक जीव ध्रुव - दृष्टि से आनंदस्वरूप है किन्तु स्वभाव की विस्मृति होने से - द्वेष करता है। यह जीव जब राग- - द्वेष त्याग कर स्व-स्वरूप में रमें तब वास्तविक सुख हो । तत्त्वज्ञान प्राप्त कर चारित्र धारण करे तब स्थिरता प्राप्त हो ।
राग
तत्त्वज्ञान सारभूत है
जोव्वण- सत्ती अरुग्गं, बुद्धी य बलं च माणुसं सारं ।
तेसिं पि परं सारं, सुतच्चणाणं च आयारो ॥81 ॥
अन्वयार्थ - ( जोव्वण- सत्ती अरुग्गं बुद्धी य बलं ) यौवन शक्ति, आरोग्यता, बुद्धि और बल ( माणुसं सारं ) मनुष्य जीवन का सार है (तेसिं पि परं सारं ) उसमें भी परमसार (सुतच्चणाणं च आयारो) सुतत्त्वज्ञान व आचार है।
अर्थ – यौवनशक्ति, आरोग्य, बुद्धि और बल मनुष्यजीवन का सार है, उसमें भी परमसार श्रेष्ठ तत्त्वज्ञान व आचरण है।
व्याख्या - मनुष्य पर्याय में युवावस्था की शक्ति, स्वस्थता, बुद्धि की विशेषता और शारीरिक बल सारभूत कहे गए हैं, किन्तु यह सब होने के बाद भी तत्त्वज्ञान व आचरण के बिना ये निरर्थक हैं। ज्ञान वही तत्त्वज्ञान है, जिससे जीवन में संयम व स्थिरता की वृद्धि होती हो । तत्त्वज्ञान अर्थात् वस्तुस्वरूप का वास्तविक बोध | मनुष्य पर्याय की श्रेष्ठता बतलाते हुए कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है
अज्झप्पसारो : : 291