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अर्थ-परवस्तुओं को जानकर भी यदि राग-द्वेष नहीं उठता तो यह ज्ञातादृष्टाभाव है तथा यह बहुत कर्मों को धुनता है।
व्याख्या-पर-वस्तु अथवा व्यक्ति में गुण अथवा दोष देखकर भी यदि राग-द्वेष की उत्पत्ति नहीं होती है तो यह उस जीव का ज्ञाता-दृष्टा भाव है। यह ज्ञाता-दृष्टाभाव वीतरागता को वृद्धिंगत कर अत्यन्त स्थिरता बढ़ाने वाला है। इससे अनंतानंत कर्मों का नाश होता है तथा आगामी कर्मों का आस्रव-बंध रुकता है। अतः यह चारित्रसंपन्न सम्यक्दृष्टि ही आदरणीय और अनुकरणीय है।
ज्ञानी अपनी कथा अपने से करते हैं णाणी सकहालावं, करेंति णिच्चं णिएण संगणं।
सण्णाणीहि वि णियदं, अण्ण-जणेहिंदु किं कजं ॥6॥ अन्वयार्थ-(णाणी सकहालावं) ज्ञानी स्वकथालाप (णियेण संगेणं) निज के साथ(णिच्चं) नित्य (करेंति) करते हैं (सण्णाणीहि वि णियदं) सम्यग्ज्ञानियों से भी नियत (दु) तब (अण्ण-जणेहिं किं कजं) अन्यजनों से क्या कार्य?
अर्थ-ज्ञानीजन स्वकथालाप निज के साथ नित्य करते हैं, सम्यग्ज्ञानियों से भी नियत तत्त्वचर्चा करते हैं, तब अन्यजनों की क्या बात?
व्याख्या-आत्मज्ञानी महानुभाव अन्तर्मुख होकर चिन्तन-मननरूप तत्त्वचर्चा अथवा आत्मानुभव रूप वार्ता निज आत्मा के साथ ही करते हैं अर्थात् स्व-स्वरूप में ही प्रायः तल्लीन रहते हैं अथवा स्वभावस्थ रहने का तीव्र पुरुषार्थ करते हैं। वे सम्यग्ज्ञानधारी सधर्मी बंधुओं से भी व्यवस्थित, कल्याणकारी, सीमित तत्त्वचर्चा करते हैं, विनय-व्यवहार करते हैं; फिर अन्य जनों की क्या बात? अर्थात् जब वे संयमी व अकषायी जनों से भी आगमानुसार निर्धारित, व्यवस्थित व अल्प वार्ताव्यवहार करते हैं, तब असंयमी व कषायी-जनों से क्यों वार्ता-व्यवहार करेंगे? आवश्यक होने पर लौकिकजनों से भी कदाचित् किंचित वार्ता-व्यवहार कर लेते
हैं।
ज्ञानी परमें सुख नहीं मानते पिबिऊण परमप्परसं, णाणीओ पर-रसं च विम्हरंति। किंचि ण परेसु य सुहं, आदसहावे बहुसुह-मत्थि ॥7॥
अन्वयार्थ-(परं णियरस-पीऊण) श्रेष्ठ निजरस को पीकर (णाणीओ पररसं च विम्हरंति) ज्ञानी पर-रस को भूल जाते हैं [क्योंकि] (परेसु) पर में (किंचि ण सुहं) कुछ भी सुख नहीं है [जबकि] (आदसहावे बहुसुहं अत्थि) आत्मस्वभाव में बहुत सुख है।
अज्झप्पसारो :: 285