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अर्थ-आँख खोलने में, गमन में, शयन में व भोजन करने में भी पाप होता है; जबकि मृत्यु सिर पर मँडरा रही है, इसलिए प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करो।
___व्याख्या-आँख खोलने पर बाह्य वस्तुएँ देखने से चित्त चलायमान होने से पापास्रव होता है। गमन अर्थात् चलने-फिरने से भी पाप होता है, क्योंकि इससे जीवों का घात होता है तथा प्रवृत्ति इच्छापूर्वक होने से भी आस्रव होता है। शयन में व्यक्ति मूर्च्छित सा हो जाता है, किन्तु उसकी भावधारा चलती रहती है; शुभाशुभ भावों से आस्रव होता है। भोजन करने में भी यदि विवेक नहीं है तो पाप है, क्योंकि प्रथम तो भोजन की प्राप्ति के लिए ही आरंभ करना पड़ता है, फिर उसके रस में आसक्ति होने से आस्रव होता है।
ये कुछ ऐसी क्रियाएँ हैं कि जिनके बिना मानव जीवन असंभव है। अत: यहाँ यह कहा जा रहा है कि आयु का भरोसा नहीं है, इसलिए पूरी सावधानी तथा विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करो, जिससे कर्मबंध न हो। 'अमरस्वरूपोऽहम्।'
आत्मा भावों का कर्ता है रागादिभावाणं कत्ता आदा पुणो णिमित्तेण।
पुग्गलदव्वं पि सयं, परिणमदे कम्मभावेण ॥21॥ अन्वयार्थ-(आदा) आत्मा (रागादिभावाणं) रागादि भावों का कर्ता है (पुणो) पुनः [इस] (णिमित्तेण) निमित्त से (पुग्गलदव्वं पि सयं) पुद्गल द्रव्य भी कर्मरूप परिणमित होता है।
अर्थ-यह संसारी आत्मा रागादि भावों का कर्ता है, इसके निमित्त से पुद्गल द्रव्य भी कर्मरूप परिणमित होता है।
व्याख्या-यह संसारी जीवात्मा अज्ञानवश राग-द्वेषादि भावों का कर्ता बना हुआ है। इन भावों के निमित्त से पुद्गलाणु भी कर्मरूप से परिणमन कर जाते हैं। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा है
जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्यपुनरन्ये।
स्वमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन॥12॥ द्रव्यसंग्रह (8) में कहा है कि यह जीव व्यवहारनय से पुद्गल कर्मादि का कर्ता है, अशुद्ध निश्चयनय से रागादि अशुद्धभावों का तथा शुद्ध निश्चयनय से शुद्धभावों का कर्ता है।
वस्तुतः यह जीव अज्ञान व अस्थिरतावश राग-द्वेषादि भावों का कर्त्ता होता है। जैसे-जैसे ज्ञान व स्थिरता बढ़ती है, वैसे-वैसे रागादि का अभाव होता जाता है। रागादि का अभाव होने पर पुद्गलाणु भी कर्मरूप परिणत नहीं होते। अतः रागादिभावों से बचो। 'रागादिभावरहित ज्ञानस्वरूपोऽहम्।' 260 :: सुनील प्राकृत समग्र