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किए जा सकते हैं। एक गुण या एक पर्याय को नहीं, अपितु अनंत गुण वाली तथा प्रतिसमय परिणमन-शील वस्तु को द्रव्य कहते हैं। ऐसा जानकर अपने जीव द्रव्य की महिमा का विचार करना चाहिए। 'चैतन्यज्योतिस्वरूपोऽहम्'।
ज्ञानी की पहचान लघुणिदामिदवयणं, वदं च णिच्चं धरेदि सण्णाणं।
अकसाओ सुहवित्ती, णिस्संगो णाणिणो चिण्हं ।।36॥ अन्वयार्थ-(लघुणिद्दामिदवयणं) थोड़ी निद्रा, मित वचन (वदं) व्रत (सण्णाणं) सम्यग्ज्ञान (अकसाओ) अकषाय (सुहवित्ती) शुभवृत्ति (च) और (णिस्संगो) निस्संगता (णिच्चं) नित्य (धरेदि) धारण करना ये (णाणिणो) ज्ञानी के (चिण्हं) चिह्न हैं।
अर्थ-थोड़ी निद्रा लेना, मितवचन, सम्यग्ज्ञान, व्रत, अकषायभाव, शुभवृत्ति व निस्संगता नित्य धारण करना ये ज्ञानी के चिह्न हैं।
व्याख्या-अल्पनिद्रा लेना, हित-मित-प्रिय वचन बोलना, व्रतधारी होना, सम्यग्ज्ञानी होना, अकषायवान अथवा मंदकषायी होना, शुभ प्रवृत्ति करना व नित्य ही अंतरंग-बहिरंग परिग्रह के त्याग रूप निस्संगता धारण करना, ये ज्ञानी-जनों की बाहिरी पहचान है। इनमें से जिसमें एक भी गुण नहीं है, वह मोक्षमार्गी नहीं है। उपरोक्त गुणों से युक्त ज्ञानी कर्मों के फल को भोगता हुआ भी वैराग्यवश नए कर्मों का आस्रव-बंध नही करता, क्योंकि ज्ञानियों के पापकर्मों का उदय तो होता है, पर पापभावों का नहीं। 'सम्यग्ज्ञानस्वरूपोऽहम्'।
भेदज्ञान की महिमा अज जाव जित्तियं जे, पत्ता संसार-सायरं तीरं।
भेदणाण णावाए चडिऊण मोत्तूण सव्वुवहिं॥37॥ अन्वयार्थ-(अज जाव) आज तक (जित्तियं) जितने (जे) जो जीव (संसार-सायरं तीरं) संसार सागर के तीर को (पत्ता) प्राप्त हुए हैं [वे] (सव्वुवहिं) सभी उपाधियों को (मोत्तूण) छोड़कर (भेदणाण-णावाए) भेदज्ञानरूपी नाव पर (चडिऊण) चढ़कर हुए हैं।
अर्थ-आज तक जितने व जो भी जीव संसार-सागर के पार को प्राप्त हुए हैं, वे सभी उपाधियों को छोड़कर भेदज्ञानरूपी नाव पर चढ़कर हुए हैं।
व्याख्या-अंतरंग व बहिरंग समस्त औपाधिक भावों को छोड़कर तथा भेदविज्ञान रूपी नौका पर चढ़कर ही अनन्त जीवात्माएँ सिद्धदशा को प्राप्त हुई हैं, जैसा कि आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार कलश में कहा है
अज्झप्पसारो :: 269