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सम सत्तु-बंधुवग्गो, सम सुह- दुक्खो, पसंस- णिंद- समो । सम लोट्ठ-कंचणी पुण, जीविद - मरणे समो समणो ॥ 240 ॥
समता ही सब कुछ है
समदा चिय सण्णाणं, समदा हि अत्थि धणं च सज्झाणं । समदा वद-चारित्तं, समदादो सिज्झदि जीवो ॥46 ॥
अन्वयार्थ – (समदा चिय सण्णाणं) समता ही सम्यग्ज्ञान है (समदा हि अत्थि धणं च सज्झाणं) समता ही धन और सुध्यान है (समदा वद - चारित्तं ) समता व्रत - चारित्र है (समदादो सिज्झदि जीवो) समता से जीव सिद्ध होता है ।
अर्थ - समता ही सम्यग्ज्ञान है, समता ही धन व सुध्यान है, समता ही व्रत व चारित्र है, क्योंकि समताभाव से ही जीव सिद्ध होता है।
व्याख्या - षट्द्रव्यों का पर्यायादि सहित जो विशिष्ट ज्ञान है, उससे भेदविज्ञान प्रगट होता है और भेदविज्ञान से समताभाव । वस्तुतः समता ही सम्यग्ज्ञान का फल होने से सम्यग्ज्ञान, निजस्वभाव होने से निजधन, सद्ध्यान, व्रत चारित्र है; क्योंकि समता के आश्रय से ही जीव सिद्ध होता है।
आत्मध्यान सर्वश्रेष्ठ है
अप्पज्झाणं सेट्टं, परमेट्ठीणं च मज्झिमं झाणं । लोगिगज्झाणमधमं विसयाणं वा महाधमं भणिदं ॥47 ॥
अन्वयार्थ—– (अप्पज्झाणं सेट्ठ) आत्मा का ध्यान श्रेष्ठ है, (परमेट्ठीणं मज्झिमं झाणं) परमेष्ठियों का ध्यान मध्यम है (लोगिगज्झाणमधमं ) लौकिक ध्यान अधम है (च) तथा (विसयाणं वा ) विषय व कषायों का ध्यान (महाधमं भणिदं ) महाअधम कहा गया है।
अर्थ - आत्मा का ध्यान श्रेष्ठ, परमेष्ठियों का ध्यान मध्यम, लौकिक ध्यान अधम तथा विषय - कषायों का ध्यान महा - अधम कहा गया है।
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व्याख्या- - आत्मा के निजभावों से ही कर्मों का आस्रव-बंध अथवा संवरनिर्जरा होती है । यह भी ध्यानाश्रित है। जैसा ध्यान अर्थात् भावों की एकाग्रता होगी वैसा बंध या मोक्ष होगा। यहाँ पर मोक्ष का साक्षात् कारण होने से आत्मध्यान को श्रेष्ठध्यान, परंपरा से मोक्ष का कारण होने से परमेष्ठियों के ध्यान व तत्त्वचिंतन को मध्यम ध्यान; स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा आदि लौकिक ध्यान को अधम तथा विषय - कषाय के पापबंधक ध्यान को महा-अधम ध्यान कहा गया है।
एक विषय पर एकाग्र हुआ ज्ञान ही ध्यान है। जैसा ज्ञान वैसा ध्यान । अतः ज्ञान की दशा व दिशा सुधारते ही ध्यान की दशा सुधर जाएगी। ध्यान की दशा सुधरते ही जीव की दशा-दिशा सुधर जाएगी ।
274 :: सुनील प्राकृत समग्र