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धर्म, तथा सच्चे देव, शास्त्र, गुरु को प्राप्तकर हे आत्मन् ! चूक मत करो। इस पर्याय में आत्महित निश्चित ही कर लो, नहीं तो पछताना पड़ेगा ।
अहिंसा की परिभाषा
परं अहिंसा धम्मो, अत्थि रागादि-दोस - परिचागं ।
जीवाण- रक्खणं च पसंत भावो वदं च ववहारो ॥57 ॥
अन्वयार्थ – (परं अहिंसा धम्मो ) परम अहिंसा धर्म (रागादि-दोसपरिचागंअत्थि ) रागादि दोष के त्यागरूप है (च) तथा ( जीवाण - रक्खणं) जीवों की रक्षा (पसंत-भावो य वदं) प्रशांतभाव व व्रत (ववहारो) व्यवहार अहिंसा है।
अर्थ - रागादि दोषों के त्यागरूप निश्चय अहिंसा धर्म है तथा जीवों की रक्षा, प्रशांतभाव व व्रतधारणरूप व्यवहार अहिंसा धर्म है।
व्याख्या - रागादिभावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है तथा रागादि भावों की उत्पत्ति न होना ही वस्तुतः अहिंसा है। जैसा कि अमृतचंद सूरि ने पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में कहा है
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेपोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ 4 ॥
जीव की आत्मस्थदशा निश्चय अहिंसा है तथा षट्काय के जीवों की रक्षा करना, प्रशमभाव व्रतादिधारण करना व्यवहार अहिंसा है। व्यवहार अहिंसा कारण है, इसके बिना निश्चय अहिंसा नहीं सध सकती ।
कैसी उपेक्षा अहिंसा है
सकसायत्त उवेक्खा, इमा हि हिंसा अणंतकोहो वा । समवित्तीइ उवेक्खा, इमा अहिंसा य मोक्खपहो ॥58 ॥
अन्वयार्थ – (हि) वस्तुतः (सकसायत्त उवेक्खा) कषाय सहित उपेक्षा (इमा हि हिंसा वा अणंतकोहो ) यह हिंसा अथवा अनंत क्रोध है और (समवित्तिए उवेक्खा) समवृत्ति की उपेक्षा (इमा अहिंसा य मोक्खपहो) यह अहिंसा अथवा मोक्षपथ है।
अर्थ - कषाय सहित उपेक्षा ही हिंसा अथवा अनंत क्रोध है, जबकि समभावों की उपेक्षा अहिंसा अथवा मोक्षपथ है ।
व्याख्या- किसी को अपना शत्रु मानकर उसे बुरा समझना तथा उससे दूर रहना, बात नहीं करना, मन में गांठ बाँधे रखना आदि यह जो कषायभाव पूर्वक उपेक्षावृत्ति बनाई गयी है; यह ही हिंसा अथवा अनंतानुबंधी क्रोध है, क्योंकि अपने परिणामों में निरंतर कठोरता, द्वेष अथवा कषायलापन भरा हुआ है। जबकि समभावपूर्वक समस्त बाह्य व्यक्ति व वस्तुओं के प्रति कि ये मेरे नहीं है, इनका परिणमन इनके अज्झप्पसारो :: 279