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निज आत्मा ही परमात्मा है णिय अप्पा परमप्पा, अप्पा अप्पम्मि अत्थि संपुण्णं।
तो किं गच्छदि बहिरं, अप्या अप्पम्मि सव्वदा झेयो॥27॥
अन्वयार्थ-(णिय अप्पा परमप्पा) निज आत्मा परमात्मा है (अप्पा अप्पम्मि अत्थि संपुण्णं) आत्मा आत्मा में सम्पूर्ण है (तो किं गच्छदि बहिरं) तो [तू] बाहर क्यों जाता है (अप्पा अप्पम्मि सव्वदा झेयो) आत्मा आत्मा में सर्वदा ध्येय है।
अर्थ-निज आत्मा ही परमात्मा है, आत्मा अपने आप में सम्पूर्ण है; तो फिर तुम बाहर क्यों जाते हो, आत्मा में आत्मा का हमेशा ध्यान करो।
व्याख्या-संसार की प्रत्येक आत्मा बीजभूत परमात्मा है। प्रत्येक आत्मा ध्रौव्यात्मक निज द्रव्य की अपेक्षा अपने अनंत गुणों से परिपूर्ण है। किन्तु अपने स्वरूप से विचलित होने के कारण संसार दशा में वह कर्मोदय से उत्पन्न अपूर्णदशा का भोग कर रहा है, जो कि स्वभाव नहीं है।
हे जीव! तुम बाह्य-दृष्टि क्यों करते हो! अंतर्दृष्टि करो और अपने अनंत वैभव को प्राप्त करने के लिए आत्मा से आत्मा में ही सर्वदा निवास करो, निज शुद्धात्मा का ध्यान करो। 'शुद्धोऽहम्।'
पर अपना नहीं होता णत्थि परो अप्पुल्लो, णिय अप्पा विपरस्स णस्थित्ति। ण वि होहिदि ण वि आसी, तम्हा मुंचेह परभावं ॥28॥
अन्वयार्थ-(परो) पर-पदार्थ (अप्पुल्लो) अपना (णत्थि) नहीं है (णिय अप्पा वि परस्स णस्थित्ति) निज आत्मा भी पर नहीं है (ण वि होहिदि) न होगा (ण वि आसी) न था (तम्हा) इसलिए (परभावं) परभावों को (मुंचेह) छोड़ो।
अर्थ-कोई भी पर-पदार्थ आत्मा का नहीं है, आत्मा भी पर का नहीं है, न होगा और न ही था। इसलिए पर-वस्तुओं में आत्मबुद्धि का त्याग करो।
व्याख्या-विश्व में छह द्रव्य हैं। सबकी स्वतंत्र सत्ता है। एकमेक होकर भी वे अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय ग्रन्थ में कहा है
अण्णोणं पविसंता, दिता ओगास-मण्णमण्णस्स।
मेलंता वि य णिच्चं, सग-सग भावं ण विजहंति॥7॥ वस्तुतः जब कोई भी वस्तु बदलकर अन्यवस्तु रूप नहीं हो जाती है, तब कोई अन्य पदार्थ इस जीव का न था, न ही है और न भविष्य में होगा ही। इसलिए हे आत्मन्! पर वस्तुओं में एकत्वबुद्धि का त्याग करो। 'एकत्वस्वरूपोऽहम्।' 264 :: सुनील प्राकृत समग्र