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अन्वयार्थ - ( पस्स!) देखो! ( पहूणो णाणे) प्रभु के ज्ञान में (लोगालोगं च) लोक व अलोक ( सम्म) अच्छी तरह (भासदे) प्रतिभाषित होता है ( तो वि) फिर भी (पहू णियलीणो ) प्रभु निजलीन हैं [ जबकि ] ( मूढ़ा भुंजंति सुह - दुक्खं ) मूढ़जन सुख - दुःख भोगते हैं ।
अर्थ- देखो ! प्रभुजी के ज्ञान में समस्त लोकालोक भासित होता है, फिर भी वे निज में लीन हैं, जबकि थोड़ा सा जानकर भी मूढ़जन सुख - दुःख को भोगते हैं । व्याख्या - हे भव्यजीवों ! अंतस की आँखों से देखो कि वीतरागी सर्वज्ञ प्रभु के केवलज्ञान में, ज्ञानावरण आदि कर्मों के नष्ट हो जाने से लोकालोक के समस्त द्रव्यों की सभी गुण-पर्याएँ एक ही काल में एक साथ प्रतिभासित होती हैं, झलकती हैं । सम्पूर्ण चराचर को जानने के बाद भी मोहनीय आदि कर्मों के अभाव हो जाने से आत्मस्थिरता को प्राप्त हो जाने के कारण प्रभु निज में ही लीन हैं। उनमें किंचित् भी अस्थिरता (चंचलता) नहीं है, क्योंकि उन्होंने शुद्धात्मानुभव के माध्यम से अस्थिर करने वाले ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र व अंतराय आदि सभी कर्मों का नाश कर दिया है, इसलिए वे निज में लीन रहते हुए, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख व अनंतवीर्य आदि अनेक गुणों का भोग करते हैं ।
उनके विपरीत संसारी मूढ़ जीव थोड़ी-सी वस्तुओं को जानकर अपने ही राग-द्वेष परिणामों से सुख अथवा दुःख भोगते हैं । वस्तु में अथवा वस्तु के जानने में सुख - दुःख नहीं है। सुख - दुःख अपनी मान्यता से उत्पन्न होता है । अत: मान्यता सुधारो, अपने को ज्ञायक तथा वस्तुओं को ज्ञेय समझो व सुखी हो लो । 'रत्यरतिरहितोऽहम् ।'
संकल्प-विकल्प आत्मा को अस्थिर करते हैं
कप्पे वियप्पे य, अथिरे कुव्वंति णिच्च - अप्पाणं । जदि णासिज्ज वियप्पा, तो पुण दुक्खस्स किं हेदू ॥13 ॥
अन्वयार्थ – (अप्पाणं) आत्मा को (संकप्पे य वियप्पे ) संकल्प व विकल्प ( णिच्च) नित्य (अथिरे कुव्वंति) अस्थिर करते हैं (जदि णासिज्ज वियप्पा ) यदि विकल्प नष्ट हो जावें ( तो पुण दुक्खस्स किं हेदू) तो फिर दुःख का क्या कारण ?
अर्थ – संकल्प और विकल्प आत्मा को निरंतर अस्थिर करते हैं । यदि ये विकल्प नष्ट हो जावें तो फिर दुःख का क्या कारण ?
व्याख्या - यह धन, परिवार, देह आदि मेरा है, इस प्रकार का विचार संकल्प है । क्रोध-मान आदि मेरे हैं, इस प्रकार का भाव विकल्प है। आत्मज्ञान के अभाव में परपदार्थों से एकत्व करना, उन्हें अपना मानना ही भूल है। 'मैं और मेरा' के कारण ही यह जीव तरह-तरह के अच्छे-बुरे संकल्प - विकल्प करता है । जिससे आकुलता
अज्झप्पसारो :: 255