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कर्तव्य कहा है। जो इन कर्त्तव्योंसे रहित है, उसे श्रावक कैसे कहा जा सकता है? 'षट्कर्मपरायणोऽहम्।'
श्रमण का लक्षण विसय-कसाया रित्तो, झाणज्झयणे रदो य णिग्गंथो।
पंचमहव्वदजुत्तो, समणो सो मोक्खमग्ग-रदो ॥१॥ अन्वयार्थ-[जो] (विसय-कसाया रित्तो) विषय-कषायों से रहित (झाणज्झयणे रदो) ध्यान-अध्ययन में रत (णिग्गंथो) निग्रंथ (य) तथा (पंचमहव्वदजुत्तो) पाँच महाव्रत युक्त है (सो) वह (मोक्खमग्ग-रदो) मोक्षमार्गरत (समणो) श्रमण है।
अर्थ-जो विषय-कषायों से रहित, ध्यान-अध्ययन में लीन, नग्न-दिगम्बर तथा पाँच महाव्रत युक्त है, वह मोक्षमार्गस्थ श्रमण [साधु] है।
व्याख्या-जो महान धैर्ययुक्त महानुभाव पंचेन्द्रियों के स्पर्शादि विषयों की वासना व क्रोधादि कषायों की ज्वाला से रहित हैं; पंचपरमेष्ठी व आत्मध्यान में तल्लीन, अध्ययन-अध्यापन में संलग्न; बाह्य व अभ्यंतर परिग्रह से रहित नग्न दिगम्बर तथा अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों से संयुक्त हैं, वे सच्चे श्रमण (साधु) कहलाते हैं।
जो आत्मशुद्धि हेतु श्रम करते हैं, आत्मलीनता रूप पुरुषार्थ करते हैं, वे श्रमण कहलाते हैं। अथवा जो आत्मा की साधना करते हैं, वे साधु कहलाते हैं। दिगम्बर मुनि अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं। 'श्रमणोऽहम्।'
सिद्ध कौन होता है इत्थी-विसए अंधो, मूगो बहिरो असण्णीतुल्लो जो।
णाणी साहू य गिही, मोक्खपहे सो हि सिज्झेदि॥10॥ अन्वयार्थ-(जो) जो महानुभाव (इत्थी-विसए) स्त्री के विषय में [अंधो, मूगो बहिरो असण्णीतुल्लो) अंधा, मूक, बधिर व असंज्ञीतुल्य है (सो) वह (णाणी साहू य गिही) ज्ञानी साधु व गृही (हि) ही (मोक्खपहे) मोक्षमार्ग में (सिझेदि) सिद्ध होता है।
अर्थ-जो महानुभाव स्त्री का रूप देखने में अंधा, अनावश्यक बात करने में मूक, व्यर्थ के शब्द सुनने में बधिर तथा रूपादि का विचार करने में असंज्ञी के समान आचरण करता है, वह ज्ञानी साधु तथा गृहस्थ परंपरा से निश्चित ही मोक्षमार्ग में सिद्ध होते हैं।
व्याख्या-जो धैर्यवान, स्थिरचित्त महानुभाव स्त्री का रूप देखने में अंधे के
अज्झप्पसारो :: 253