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अर्थ-मृत्यु आने पर जीवों की रक्षा करने में वस्तुत: कौन समर्थ है? क्या तंत्र-मंत्र, देव, वैद्य, इन्द्र अथवा धनेन्द्र?
व्याख्या-संसार में दो प्रकार की शरण मानी गयी है-1. लौकिक शरण, 2. पारलौकिक शरण। ये दोनों ही शरण जीव, अजीव व मिश्र के भेद से तीन-तीन प्रकार की मानी गयीं हैं । देव, राजा, मंत्री, वैद्य, माता-पिता तथा कुटुंबीजन लौकिक जीव शरण हैं। दुर्ग, गुप्त किला, दृढ़महल, अस्त्र-शस्त्र आदि लौकिक अजीव शरण हैं। गाँव, नगर आदि लौकिक मिश्र शरण हैं।
पंचपरमेष्ठी पारलौकिक जीव शरण हैं। शास्त्र, पिच्छी-कमंडल तथा संयम के अन्य उपकरण पारलौकिक अजीव शरण हैं। उपकरण युक्त साधुवर्ग, उपाध्याय से युक्त आश्रम पारलौकिक मिश्र शरण है।
__ आयु कर्म का क्षय अथवा तीव्र असाता वेदनीय कर्म का उदय होने पर इस जीव के लिए कोई भी शरण नहीं बचा सकती। धर्म और धर्मात्माओं की शरण में उसे कल्याण का मार्ग तो मिल सकता है, किन्तु देहादि की सुरक्षा सर्वदा नहीं हो सकती।
__जब मरण समय निकट होता है, तब अज्ञानी जन अत्यन्त दु:खी होते हैं। देहादि तथा गृहादि पदार्थों में ममत्व होने के कारण उनका मरण अत्यन्त दयनीय दशा में होता है। वे माता-पिता, कुटुंबीजनों, वैद्यों तथा देवी-देवताओं की गुहार लगाते है, तब भी कोई बचा नहीं सकता। क्योंकि मरण से तो इन्द्र भी बचता नहीं।
जिस प्रकार महासागर में जहाज से उड़ा पंछी कहीं शरण नहीं पाता; भयानक जंगल में सिंह के पंजे के नीचे आया हिरण का बच्चा बच नहीं सकता; उसी प्रकार आयु का अंत होने पर इस देह में जीव को कोई रोक नहीं सकता।
जहाँ अज्ञानीजन मरण आदि से भयभीत व दु:खी होते हैं, वहाँ ज्ञानीजन व्यवहारमें पंचपरमेष्ठी व निश्चय में निजात्मस्वरूप की शरण ग्रहण कर पर्याय को पर्याय समझकर, अपने को शाश्वत, ज्ञायक जानकर समाधिपूर्वक देह त्यागते हैं। वे जानते हैं कि वस्तुतः आत्मा का तो कभी अन्त होता नहीं। मैं तो शाश्वत शरणभूत आत्मद्रव्य हूँ। 'शाश्वतशरण-स्वरूपोऽहम् ॥12॥
संसार भावना चउग्गदी य संसारे, णाणा जोणीकुलासिदो।
दुक्खस्स य भयट्ठाणे, जीवो कम्मेहि हिंडदे॥13॥ अन्वयार्थ-(दुक्खस्स य भयट्ठाणे) दुःख और भय के स्थान (णाणा जोणी) नाना योनि (य) और (कुलासिदो) कुलाश्रित (चउग्गदी संसारे) चतुर्गति रूप संसार में (कम्मेहि) कर्मों के द्वारा (जीवो) जीव (हिंडदे) घूमता है।
भावणासारो :: 197