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छह द्रव्यों से (संजुदो) संयुक्त (लोगो) लोक है।
अर्थ-यह लोक चौदह राजू ऊँचा पुरुषाकार रूप से सुस्थित अनादि-निधन और छह द्रव्यों से संयुक्त है।
व्याख्या-जहाँ पर जीवादि छह द्रव्य देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल ये छह द्रव्य सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। ऊर्ध्व, अधो व मध्य से भाजित होने के कारण लोक त्रिलोक अथवा तीन लोक कहलाता है।
यह लोक कमर पर हाथ रखकर, पैरों को फैलाकर खड़े हुए पुरुष के समान है। धनोदधि वातवलय, घन वातवलय तथा तनु वातवलय रूप तीन वलयों से घिरा हुआ यह लोक नीचे से ऊपर चौदह राजू ऊँचा है। विस्तार में सबसे नीचे सात राजू, ऊपर की ओर घटते हुए मध्यलोक की संधि पर एक राजू, फिर बढ़ते हुए ब्रह्मस्वर्ग की संधि पर पाँच राजू, उसके ऊपर घटते हुए सिद्धलोक पर एक राजू विस्तृत है। लोक के बीचों-बीच चौदह राजू ऊँची तथा एक राजू विस्तार वाली त्रसनाली है। इसके बाहर त्रस जीव नहीं पाए जाते। इसलिए इसे त्रसनाली कहते हैं।
यह लोक अनादि-निधन है अर्थात् न तो इसे किसी ने बनाया ही है और न ही कोई इसका नाश ही कर सकता है। यह छह द्रव्यों से स्वयं व्यवस्थित है। जिन क्षेत्रों में काल परिवर्तन होता है, वहाँ हीनाधिकता अथवा उत्पाद-व्यय स्पष्टतया देखा जाता है, तो भी वह स्व-व्यवस्थित है, किसी के द्वारा किया गया नहीं।
न तो इसे किसी विष्णु आदि ने बनाया है और न ही शेषनाग अथवा कच्छप आदि पर अवस्थित है, अपितु वातवलयों के आधार से इस लोक की अवस्थिति है। शरीर में स्थित जीव निज चिल्लोक है, अत: इसकी निरंतर भावना करनी चाहिए। 'निज चिल्लोक स्वरूपोऽहम् ॥26॥
कर्मवश जीव लोक में भटकते हैं तिरिए णर-देवे य, णिरयगदि-संजुदे।
लोए भमंति कम्मेहिं, जीवा किलेसमाणा हि॥37॥ अन्वयार्थ-(तिरिए णर-देवे) तिर्यंच, मनुष्य, देव (य) और (णिरयगदिसंजुदे) नरकगति संयुक्त (लोए) लोक में (कम्मेहिं) कर्मों से (किलेसमाणा) दुःखी होते हुए (जीवा) जीव (भमंति) भटकते हैं।
___ अर्थ-तिर्यंच, मनुष्य, देव और नरकगति संयुक्त लोक में कर्मों से दुःखी होते हुए जीव भ्रमण करते हैं।
व्याख्या-संसारी जीव मुख्यतः चार गतियों में विभक्त हैं-1. तिर्यंचगति, 2. मनुष्यगति 3. देवगति तथा 4. नरकगति। तिर्यंचगति की बासठ लाख, मनुष्यगति की चौदह लाख, देवगति की चार लाख तथा नरकगति की चार लाख, इस प्रकार
216 :: सुनील प्राकृत समग्र