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हे कुंथनाथ भगवान! आध्यात्मिक तप की वृद्धि के लिए आपने घोर बाह्य तपश्चरण किया। आर्त व रौद्र दोनों खोटे ध्यानों के निराकरण के लिए आपने धर्म व शुक्लध्यान को अतिशय रूप से बढ़ाया है।
जिस बाह्य तप से आध्यात्मिक विशुद्धि नहीं बढ़ती वह मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं है। वस्तुतः वह तप ही सच्चा तप है, जिससे कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन, साम्यभावों में वृद्धि व ज्ञानकी विशुद्धि बढ़ती हो। ऐसा तप ही तपने योग्य है। 'शुद्धात्मरूप-प्रतपन-स्वरूपोऽहम्' ॥60॥
त्याग धर्म मेहं विणा कुदो वुट्ठी, णो सस्सं वीयवज्जियं।
जीवाणं च विणा चागं, कुदो सुहं च होदि हि॥61॥ अन्वयार्थ-(मेहं विणा) मेघ बिना (वट्ठी कुदो) वृष्टि कहाँ? (वीयवज्जियं) बीजरहित (सस्सं) धान्य (णो) नहीं (च) और (विणा चागं) बिना त्याग के (हि) निश्चयतः (जीवाणं) जीवों को (सुह) सुख (कुदो) कहाँ (होदि) होता है।
अर्थ-जैसे बिना मेघ के वृष्टि, बिना बीज के धान्य नहीं होता, वैसे ही बिना त्याग के जीवों को सुख कहाँ होता है?
व्याख्या-सम्यक् तत्त्वबोध होने पर जो त्याग किया जाता है, वह कार्यकारी है। जो वस्तु हमारे काम की नहीं अथवा किसी के उपयोग में नहीं आ सकती है, उसका दान अथवा त्याग कार्यकारी नहीं है। वैसे तो यह जीव बाह्य वस्तुओं का त्याग ही क्या करेगा? क्योंकि वे इसकी है ही नहीं। किन्तु जीव के अध्यवसान में कारण होने से उनका त्याग कराया जाता है। अध्यवसान ही मूलतः बंध का कारण है।
कर्मोदय वश यह जीव रागादिरूप परिणमित होता है। जबकि वस्तुतः वे आत्मा के नहीं हैं, अपितु कर्म के संयोग से हुए हैं। अत: त्याज्य है। समस्त बाह्य वस्तुओं तथा वैभाविक भावों का त्याग किए बिना जीव को उसी प्रकार सुख नहीं हो सकता, जिस प्रकार बिना मेघ के वर्षा तथा बिना बीज के धान्य नहीं हो सकता। 'विभावभावशून्योऽहम् ॥61॥
आकिंचन्य धर्म . इणं मम इणं तुम्हं, वा जगे किंचि अस्थि मं।
इच्चादि भावणं चत्ता, आकिंचणं हि भावह॥62॥ अन्वयार्थ-(इणं मम इणं तुम्ह) यह मेरा है, यह तेरा है (वा) अथवा (जगे) जग में (किंचि) कुछ भी (मं अत्थि) मेरा है (इच्चादि भावणं चत्ता) इत्यादि भावना छोड़कर (आकिंचणं हि भावह) आकिंचन को ही भाओ।
अर्थ-यह मेरा है, यह तेरा अथवा जगत में कुछ भी मेरा है इत्यादि भावना
भावणासारो :: 237