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स्त्री के मनमोहक अंगों को न देखना पूर्वकृत क्रीड़ा को याद न करना, उनके अत्यन्त निकट नहीं रहना, स्व-शरीर संस्कार त्याग करना, स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाएं न करना तथा उत्तेजक असीमित व गरिष्ट भोजन का त्याग करने से ब्रह्मचर्य का पालन करने में सरलता होती है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने संयमरहित तप को निरर्थक कहा है। शील (ब्रह्मचर्य) की प्रशंसा करते हुए सील पाहुड में कहा है
सीलं तवो विसुद्धी, सणसुद्धी य णाणसुद्धी य।
सीलं विसयाण अरी, सीलं मोक्खस्स सोवाणं॥20॥ अर्थात् शील से तपविशुद्ध होता है, दर्शन शुद्धि तथा ज्ञानशुद्धि होती है। शील विषयों (इन्द्रियों) का शत्रु है और यह शील (ब्रह्मचर्य) ही मोक्ष का सोपान (सीढ़ी) है।
वस्तुतः ब्रह्मचर्य आत्मकल्याण तो साधता ही है, इससे लोक कल्याण भी सधता है। सच्चे ब्रह्मचारी को कई ऋद्धि-सिद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं। वीर्य (ऊर्जा) की रक्षा से उसका शरीर तेजवान व पुष्ट होता है। कुरूप व्यक्ति भी ब्रह्मचर्य के बल से सुंदर तथा ताकतवर हो जाता है। अत: ब्रह्मचर्य का पालन अवश्य ही करना चाहिए। 'ब्रह्मचर्य स्वरूपोऽहम्' ॥63 ॥
___ कषायों से हानि ही है कोहो पीदिं विणासेदि, माणो करेदि दुग्गदिं।
माया वड्ढेदि संसार, लोहा दुःख-भयं हवे॥64॥ अन्वयार्थ-(कोहो पीदिं विणासेदि) क्रोध प्रीति को विनष्ट करता है (माणो दुग्गदिं करेदि) मान दुर्गति करता है (माया संसारं वड्ढेदि) माया संसार को बढाती है [तथा] (लोहा दुख-भयं हवे) लोभ से दुःख व भय होता है। 64॥
अर्थ-क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान दुर्गति करता है, माया संसार को बढ़ाती है और लोभ से दु:ख व भय होता है।
व्याख्या-क्रोध, मान, माया व लोभ ये चारों कषाएँ आत्म का वैभाविक परिणमन होने से दुःखदायी ही है। ये आत्मा के निजी भाव नही हैं, अपितु कर्मोदय
से उत्पन्न हुए हैं। यह आत्मा को तो कषते ही है, कर्मबंध भी कराते हैं तथा • लोकव्यवहार को भी बिगाड़ते हैं।
अत्यधिक क्रोधी व्यक्ति न तो स्वयं किसी से प्रेम करता है और न उसे ही कोई प्रेम करता है। अहंकार दुर्गति का कारण है, इस लोक में भी अहंकारी को कोई सम्मान नहीं देता है। माया से संसार बढ़ता है, मायावी से लोग सावधान रहते हैं। लोभ से दु:ख व भय होता है, लोभी का धन चोर-उचक्के उड़ाते हैं।
भावणासारो :: 239