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जिसके मन में बैठा है, वह उससे कितना ही दूर हो, पास ही है और जो जिसके मन में नहीं है, वह एकदम पास में बैठा हो, तब भी दूर ही है।' तो मोह से बड़ा बंधन इस लोक में दूसरा नहीं है। इसके कारण ही यह जीव संसार दशा में विद्यमान है । अतः मोह का त्याग करो ।
पंचेन्द्रिय विषयों को बिष की उपमा दी गयी है । जिस प्रकार बिष का सेवन करने से मरण हो जाता है, उसी प्रकार विषय रूप बिष का सेवन करने वाले का भी संसार में पतन हो जाता है, भावमरण हो जाता है। भगवती आराधना में कहा है कि विषभक्षण से तो एक बार मरण होता है, किन्तु विषय - विष का भक्षण करने वाले को बार-बार जन्म-मरण करना पड़ता है । अतः विषय वासनाओं से दूर रहो ।
क्रोध के अलावा संसार में जीव का कोई दूसरा शत्रु नही हैं। क्रोध के वशीभूत होकर यह जीव बड़े-बड़े अनर्थ कर डालता है। क्रोधी जीव माता - पिता, गुरु-शिष्य, भाई-बंधु किसी को कुछ नहीं गिनता । इस क्रोध के साथ ही शेष कषाएँ भी जीव को संत्रास देती है । अत: क्रोध को विभाव जानकर इसका त्याग करना चाहिए
जन्म, जरा और मृत्यु, ये संसार के सबसे बड़े दुःख (रोग) हैं । कोई भी संसारी जीव इनसे अछूता नहीं है। जन्म होता है तो मरण भी होता है, मरण के बाद फिर अन्यत्र जन्म होता है, बुढ़ापा भी आता है । यदि जीव का जन्मोच्छेद हो जाए तो सारे दुःखों का अभाव तुरंत हो जाएगा। जन्म-मरण से बचने का उपाय है आत्मलीनता । 'विषय - कषाय रहितोऽहम् ।'
वह योगी धन्य
दिस्समाणं ण दिस्सेदि, सुणमाणं सुणेदि णो ।
राग - दोसादि कत्तारं, लोगं धण्णो य जोगी सो ॥70 ॥
अन्वयार्थ – [ जो ] ( राग-दोसादि कत्तारं लोगं) राग-द्वेषादि के कर्त्ता लोक
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को (दिस्समाणं ण दिस्सेदि) देखता हुआ नहीं देखता (य) और (सुणमाणं सुणेदि णो) सुनता हुआ नहीं सुनता (सो) वह (जोगी) योगी ( धण्णो) धन्य है ।
अर्थ - जो राग-द्वेष करने वाले लोकजनों को देखता हुआ भी नहीं देखता और सुनता हुआ भी नहीं सुनता वह योगी धन्य है
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व्याख्या – अज्ञानता वश लोकजन प्रायः राग-द्वेष से परिपूर्ण प्रवृत्ति किया करते हैं। वे राग-द्वेष करते हुए वर्तते हैं, किन्तु उन्हें लाभ कुछ भी नहीं होता, दुःख ही उठाना पड़ता है। सुख तो राग- - द्वेष के अभाव में है। ऐसा जानने वाले योगीजन राग-द्वेष के कर्त्ता जीवों की विविध चेष्टाएँ देखते हुए भी नहीं देखते और उनके शब्दादि सुनते हुए भी नहीं सुनते। क्योंकि रागी -द्वेषी जीवों की चेष्टा व वचनोच्चारण रागादि का ही वर्धक होता है । इसलिए राग-द्वेष से बचने की चेष्टा करने वाले
भावणासारो :: 243