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पूज्यता तथा तीनों की एकता से यह जीव मुक्त होता है।
व्याख्या-सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेने से यह जीव दुर्गतियों में नहीं जाता है। जैसा कि वादीभ-केशरी आचार्य समंतभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है
सम्यग्दर्शन-शुद्धाः नारकतिर्यङ्-नपुंसक-स्त्रीत्वानि। दुष्कुल-विकृताल्पायुः दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः ॥35॥
अर्थात् सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव नरक, तिर्यंच, नपुंसक, स्त्रीवेदी, दुष्कुल, विकृतांग, अल्पायु तथा दरिद्रकुलों में अव्रती होने पर भी जन्म नहीं लेता।
यदि आयु बंध करने के बाद सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है, तो ऐसा जीव प्रथम नरक तक, भोगभूमियाँ तिर्यंच अथवा मनुष्यों में जाता है। किन्तु यदि सम्यग्दर्शन दृढ़ रहा तो वह थोड़े ही भवों में मुक्त हो जाता है।
ज्ञान से संसार-व्यापी कीर्ति होती है। एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है___'स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते' अर्थात् राजा तो अपने राज्य में ही पूजा जाता है, जबकि विद्वान सर्वत्र पूजा जाता है। आचार्य माणिक्यनंदी ने परीक्षामुख 1/2 में लिखा-'हिताहितप्राप्ति परिहार समर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्। अर्थात् हित की प्राप्ति तथा अहित का परिहार करने में जो समर्थ है, वह प्रमाण है; ऐसा तो ज्ञान ही है, इसलिए ज्ञान ही प्रमाण है।
जिससे आत्महित न हो उस ज्ञान को यहाँ प्रमाणभूत नहीं माना है। आचरण व आत्मानुभव के बिना ज्ञानाभ्यास तथा प्रवचनादि करना मात्र मुख की खुजली मिटाना है। अतः ज्ञानार्जन-प्रवचन आत्कल्याणार्थ होना चाहिए।
चारित्र से जगत में पूज्यता होती है। चारित्र का अर्थ है अनाकुलता- वीतरागता। पंचमहाव्रतादि धारण कर आत्मलीन होना ही श्रेष्ठ चारित्र है। इन तीनों अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र की एकता से जीव संसार से मुक्त हो जाता है। 'विमुक्त-स्वरूपोऽहम् ॥
10॥
अश्रद्धानी नाश को प्राप्त होता है मूढो असदहाणी य, संसयप्या विणस्सदि।
णायं लोगो परो णत्थि, सुहं च संकियत्तणं॥1॥ अन्वयार्थ-(मूढो) मूढ़ (असद्दहानी) अश्रद्धानी (य) और (संसयप्पा) संशयालु (विणस्सदि) विनाश को प्राप्त होता है (संकियत्तणं) संशयात्मा को (णायं लोगो परो णत्थि सुहं च) न यह लोक और न परलोक सुखकर है।
अर्थ-मूढ़, अश्रद्धानी और संशयालु व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है। संशयात्मा को न यह लोक सुखकर होता है और न ही परलोक ।
220 :: सुनील प्राकृत समग्र