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दिखता नहीं। अतः शरीर से श्रेष्ठ इन्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से वस्तुतः इन्द्रियों का संचालन होता है। मन के चंचल होने से इन्द्रियविषयों में लोलुपता बढ़ती है, जबकि मन के शांत होने से इन्द्रियाँ भी शान्त हो जाती हैं। मन से बोधि श्रेष्ठ है, क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप बोधि जीव के निजी गुणों की विकासशील दशा है। बोधि के प्राप्त होने पर जीव को समाधि की प्राप्ति सहज ही हो जाती है।
बोधि से निज आत्मा श्रेष्ठ है, क्योंकि यह बोधि तथा सुखादि गुण इस आत्मा के आधार से ही रहते हैं। अत: निज आत्मा की ही आराधना करनी चाहिए। 'बोधिस्वरूपोऽहम्' 144॥
जो आत्मा को जानता है, वह सब जानता है जो जाणादि णियप्पाणं, सो जाणादि चराचरं ।
जो ण जाणादि अप्पाणं, सोण जाणादि किंचि वि॥5॥ अन्वयार्थ-(जो) जो (णियप्पाणं) निजात्मा को (जाणादि) जानता है (सो) वह (चराचरं) चराचर को (जाणादि) जानता है, (जो) जो (अप्पाणं) आत्मा को (ण) नहीं (जाणादि) जानता है (सो) वह (किंचि वि) कुछ भी (ण जाणादि) नहीं जानता
अर्थ-जो निजात्मा को जानता है, वह चराचर को जानता है तथा जो निजात्मा को नहीं जानता है, वह कुछ भी नहीं जानता है।
व्याख्या-आठ दुष्ट कर्मों से रहित, अनुपम, ज्ञानशरीरी, नित्य और शुद्ध जो आत्मद्रव्य है, उसे जिनेन्द्र भगवान ने स्वद्रव्य कहा है। जो ऐसे स्वद्रव्य को जानता है, वह भेदविज्ञान व श्रुतज्ञान के बल से स्व को स्व तथा पर को पर अथवा सभी चराचर को क्षयोपमानुसार हीनाधिक भले जाने लेकिन यथार्थ जानता है। जबकि जो निजात्मा को नहीं जानता, वह यथार्थ ज्ञानी न होने से क्षयोपशमिक ज्ञान से बहुत बातों को जानता हुआ भी कुछ नहीं जानता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने मोक्षपाहुड में कहा है
दुक्खे णजइ अप्पा, अप्पा णाऊण भावणा दुक्खं।
भाविय सहाव पुरिसो, विसएसु विरजए दुक्खं ॥65॥ अर्थात् आत्मा दुःख से जाना जाता है, फिर जानकर उसकी भावना दुःख से होती है और फिर भावना करने वाला दु:ख से विषयों में विरक्त होता है। (यहाँ दुःख का अर्थ 'कठिन' कर सकते हैं)
__ आत्मा ज्ञानस्वभावी है किन्तु अनादि काल से यह ज्ञानधारा परज्ञेयों में ही बहती आई है, इसलिए स्वज्ञेय की दृष्टि कठिन मालूम पड़ती है। लेकिन यह 224 :: सुनील प्राकृत समग्र