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ने नीचत्व भी भोगा है। उच्चत्व निश्चित ही अनित्य है और नीचत्व भी सुस्थित नहीं है।
व्याख्या-सम्यग्ज्ञानी बहुत सम्मान प्राप्त होने पर विचारते है कि पुण्योदय से प्राप्त वंश, धन आदि के कारण अथवा क्षायोपशिक ज्ञान आदि के कारण मुझे जो यह बहुत सा सम्मान, सत्कार-पुरस्कार आदि मिल रहा है, यह मेरे लिए कुछ भी नहीं है। क्योंकि इस जीव ने चतुर्गति रूप संसार में अनेक बार नीचता प्राप्त कर कष्ट भोगे है, अपमान भोगा है। ____ नरक गति में तो शुद्ध अपमान और दुःख ही हैं। तिर्यंचगति में कुछ पशुओं के अलावा प्रायः सभी अपमान और कष्ट ही भोगते है। मनुष्यगति में सम्मान-अपमान वा उच्चत्व-नीचत्व प्रायः सभी मनुष्यों में अपेक्षाकृत पाया जाता है। देवों में भी कुछ देवों के अलावा प्रायः यही स्थिति है। ऐसी दशा में वर्तमान की उच्चता का क्या घमंड करना। क्योंकि यह उच्चता निश्चित नाशवान है और किसी जीव की नीचता भी सदैव नहीं बनी रहती।
देखो अनेक ऋद्धियों संपन्न देव भी मरकर एकेन्द्रिय वृक्ष हो जाता है। एक राजा भी मरकर अपने विष्टागृह में कीड़ा हो गया। प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में ऐसे अनेक कथानक देखे जाते हैं। अतः धन, पद, वंश, परिवार आदि की उच्चता का अहंकार छोड़कर निजात्मस्वरूप का विचार करना चाहिए। 'उत्तममार्दव धर्म स्वरूपोऽहम्' ॥55॥
आर्जव धर्म मुत्ता कुडिल्ल भावं च, सच्छ भावेण चेट्ठदे।
अजवधम्मी णाणी सो, लोगे सव्वत्थ पुजदे ॥56॥ अन्वयार्थ-[जो] (कुडिल्ल भावं) कुटिल भाव को (मुत्ता) छोड़कर (च) और (सच्छ भावेण चेट्ठदे) स्वच्छभाव से चेष्टा करता है (सो) वह (णाणी) ज्ञानी (अजवधम्मी) आर्जवधर्मी (लोगे सव्वत्थ पुजदे) लोक में सर्वत्र पूजा जाता है।
अर्थ-जो कुटिलभाव को छोड़कर स्वच्छभाव से चेष्टा करता है, वह आर्जवधर्मी ज्ञानी लोक में सर्वत्र पूजा जाता है।
व्याख्या-मन, वचन काय की कुटिल प्रवृत्ति का नाम माया है। अथवा मन में कुछ, वचन में कुछ तथा करना कुछ और ही; इस प्रकार की प्रवृत्ति को मायाचारी कहते हैं। आचार्य गृद्धपिच्छ ने तत्त्वार्थसूत्र (6/16) में माया को तिर्यंचगति का कारण कहा है-'मायातैर्यग्योनस्य।'
जो कुटिलता, वक्रता, निकृति, वंचना आदि नाम वाली इस माया महाठगनी को छोड़कर सहज-सरल भाव से प्रवृत्ति करता है, वह आर्जवधर्म वाला ज्ञानी जीव समस्त लोक में सज्जनों द्वारा पूज्यता को प्राप्त होता है। 'उत्तमआर्जवधर्मस्वरूपोऽहम् ॥56॥
भावणासारो :: 233