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काम का किंचित् भी सेवन करता है अर्थात् कोई नहीं। 'कामविकार रहित ज्ञायक स्वरूपोऽहम् ॥52 ॥
अदाता का घर श्मशान दाणं जे ण पयच्छंति, सुपत्तेसु चउव्विहं।
मसाणो हि गिहो ताणं, वासिणो तम्मि विंतरा।।53॥ अन्वयार्थ (जे) जो (चउव्विहं) चतुर्विध (सुपत्तेसु) सुपात्रों में (दाणं) दान (ण) नहीं (पयच्छंति) देते (ताणं) उनका (गिहो) गृह (हि) वस्तुतः (मसाणो) श्मशान है (य) और (तम्मि वासिणो) उसमें रहने वाले (विंतरा) व्यंतर हैं।
अर्थ-जो चार प्रकार के सुपात्रों में दान नहीं देते उनका घर वस्तुतः श्मशान है और उसमें रहने वाले व्यंतर हैं। ___व्याख्या-रयणसार (11) में कहा है-'दाणं पूया मुक्खं सावय धम्मं, ण सावया तेण विणा' अर्थात् दान व पूजा ये श्रावक के मुख्य धर्म हैं, इनके बिना श्रावकधर्म नहीं होता। आगे गाथा 15 में कहा है- श्रावक भोजनमात्र दान देकर धन्य होता है। आगे गाथा 16 में कहा है- सुपात्रों में दान देने से श्रावक भोगभूमि व स्वर्ग को प्राप्त करता हुआ क्रमशः निर्वाण सुख को प्राप्त करता है।
- आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में दान, दान के प्रकार व दान फल का संक्षिप्त किन्तु सांगोपांग विवेचन किया है। उन्होंने आहार, औषधि, उपकरण व आवास ये चार दान सत्पात्रों में देने का विधान किया है। दान देने से श्रावक के द्वारा गृहकार्यों में हुए पाप भी धुल जाते हैं। ___आचार्य पद्मनंदी ने कहा है- सौभाग्य, शूरवीरता, सुख, सुंदरता, विवेक, विद्या, बुद्धि, विभिन्न प्रकार की कलाएँ, शरीर, धन, महल और उच्चकुल ये सब निश्चय से सुपात्र दान के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। फिर हे भव्यजनों! तुम इस सुपात्र- दान के विषय में प्रयत्न क्यों नहीं करते? अर्थात् सच्चे साधकों को दान यत्न पूर्वक दो।
दान की ऐसी महिमा होने के बाद भी जो स्व-पर उपकारार्थ दान नहीं देता, वह नासमझ है। क्रियाकोष नामक ग्रन्थ में लिखा है
जानों गृद्धसमान, ताके सुत दारादिका। जो नहीं करे सुदान, ताके धन आमिष समा॥1986॥
अर्थात् जो सत्पात्रों में आहारादि दान नहीं करता है, उसका धन मांस के समान है और उस कमाई को खाने वाले पुत्र स्त्री आदि गृद्ध मंडली के समान हैं। अत:दान अवश्य ही करना चाहिए। 'दानादानरहित ज्ञायक स्वरूपोऽहम् ॥53॥
भावणासारो :: 231