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अपनी परिणति सुधारकर सिद्ध हो गए और हम आज भी संसारी हैं।
हमारे मन में जब तक जीवों के प्रति जीवत्व (सिद्धत्व) भाव प्रगट नही होता, तब तक अहिंसादि व्रतों का सम्यक्तया परिपालन नहीं हो सकता। 'जिन सो जीव, जीव सो जिनवर' ऐसी बुद्धि प्रगटाना ही कल्याणकारी है। सर्वबंधुताकारकज्ञानस्वरूपोऽहम्' ।।51 ॥
काम अतृप्तिकारक है अतित्तिजणगं कामं, तावकारिणं दुक्खदं।
देहकदत्थेणुव्वण्णं, किंचि को सेवदे बुहो॥52॥ अन्वयार्थ-(तावकारिणं) तापकारी (अतित्तिजणगं) अतृप्तिजनक (देहकदत्थेण-उव्वण्णं) देहकदर्थन से उत्पन्न (य) और (दुक्खदं) दुःखदायी (काम) काम को (को) कौन (बुहो) बुध (किंचि सेवदे) किंचित भी सेवन करता है। ___अर्थ- तापकारी, अतृप्तिजनक, देह के कदर्थित होने से उत्पन्न और दुःखदायी काम को कौन बुद्धिमान किंचित भी सेवन करता है।
व्याख्या-सबसे पहले आँखों में विकार आता है, फिर मन में विकार आता है, फिर शरीर में विकार आता है और यदि ये विकार बढ़ते रहे तो पूरा जीवन ही बिगड़ जाता है। जब किसी सुंदर वस्तु, स्त्री को देखते हैं तो अज्ञानीजन उसे बारबार देखने की इच्छा करते है, उसे चाहते है, कैसे प्राप्त हो? ऐसा विचार करते हैं, इत्यादि प्रकार से संतापित होते हैं, अतः कामभावना को तापकारी कहा है।
कदाचित इष्ट स्त्री आदि का संयोग भी कर लिया जाए तो भी तृप्ति नहीं होती, इसलिए काम को अतृप्तिजनक कहा है। वह काम देह के कदर्थन (थकान) से उत्पन्न होता है तथा दुःखदायी हैं। उससे ऐन्द्रियिक सुख भासता जरूर है, पर यह शाश्वत व वास्तविक सुख नहीं है।
स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषयों में सुख मानना ही अज्ञानता है। यह तो अनादिकाल से चल ही रहा है। मूलाचार में कहा है
जिब्भोवत्थ णिमित्तं, जीवो दुक्खं अणादि संसारे।
पत्तो अणंतसो तो, जिब्भोवत्थे जयह दाणिं ॥990॥ अर्थात् जिह्वा व उपस्थ (लिंग) के निमित्त यह जीव अनादि काल से अनंत दु:ख भोग रहा है, इसलिए जिव्हा और उपस्थ को इस समय जीतो। समयसार (4) की आत्मख्याति टीका में स्पर्शन व रसना इन्द्रिय को कामेन्द्रिय तथा शेष को भोगेन्द्रिय कहा है।
ये इन्द्रियाँ (देह) पुद्गल की संरचना व नाशवान हैं, जबकि यह आत्मा ज्ञायक व शाश्वत है; ऐसा जानकर आत्मस्वरूप का लक्ष्य करने वाला कौन बुद्धिमान
230 :: सुनील प्राकृत समग्र