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अपमान सहते हुए भी उसका त्यागकर तथा रत्नत्रय प्राप्त कर आत्महित नहीं साधते हैं।
भेदविज्ञान प्राप्तकर कदाचित कोई भव्यात्मा गृह-कुटुम्ब आदि का त्याग करना चाहे तो बंधुजन बन्धन के समान उसे रोकते हैं। स्त्री बेड़ी के समान आड़े आ जाती है। पुत्र भी कठोर श्रृंखला के समान बनकर उसके कल्याण में बाधक बनते हैं। कदाचित कुछ अनुकूलता बनती हो तो कुटुंबी जाल के समान बनकर उसे गृह में ही फँसाए रखना चाहते है।
आत्मार्थी को बंधुवर्ग का त्याग करके, शरीरादि से भी ममत्व का त्यागकरके आत्मकल्याण में संलग्न होना परम आवश्यक है। 'कुटुंबजाल विरहितोऽहम् ॥20॥
अशुचित्व भावना सत्तधादुमओ देहो, सम्भूदो सुक्कसोणिदा।
मलमुत्तादिदुग्गंधो, अणिच्चं रोग-मंदिरं ॥21॥ अन्वयार्थ-(सुक्क-सोणिदा संभूदो) शुक्र-शोणित से उत्पन्न (देहो) शरीर (सत्तधादुमयं) सप्तधातुमय (मलमुत्तादि दुग्गंधो) मलमूत्रादि से दुर्गन्धित (अणिच्चं) अनित्य (रोग-मंदिरं) रोगों का घर है।
अर्थ-शुक्र-शोणित से उत्पन्न यह शरीर सप्तधातुमय, मलमूत्रादि से दुर्गन्धित, अनित्य व रोगों का घर है। __व्याख्या-आगम में पाँच प्रकार के शरीर कहे गए है-1. औदारिक, 2. वैक्रियिक, 3. आहारक, 4. तैजस व 5. कार्मण। औदारिक के अलावा शेष चार शरीरों की संरचना सूक्ष्म-पुद्गलों से हुई है। यों तो इस जीव को पाँचों ही शरीर कर्म-नोकर्म की रचना होने से अशुचि हैं, किन्तु यहाँ प्रकरण औदारिक शरीर का है।
___ मनुष्य का यह औदारिक शरीर माता-पिता के संयोग से उत्पन्न हुआ। नौ माह तक माँ के उदर में इसकी क्रमशः रचना होती है। यह देह रोगों का घर है। एक अंगुल शरीर में 96 तथा पूरे शरीर में 56899584 रोग पाए जाते हैं।
यह शरीर माता-पिता के रज-वीर्य से रचित होने के कारण मलबीज; मलमूत्र, खून-पीव झराने वाला होने से मलयोनि; सड़न-गलन स्वभाव वाला, अत्यन्त दुर्गन्धित है। इसकी त्वचा निकाल दी जावे तो यह अत्यन्त भयानक दिखने लगेगा। इसमें खून, मांस, मज्जा, मेदा, कफ-पित्तादि अत्यन्त वीभत्स पदार्थ भरे हुए हैं। यह हड्डियों का पिंजरा है। माँ के पेट में नौ माह तक मल-मूत्र के बीच पड़े रहकर, लार पीकर इसकी वृद्धि हुई है। ऐसे शरीर से कौन ज्ञानी मोह करेगा।
वस्तुतः शरीर जीव से पृथक् स्वभाव वाला है। दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं, शरीर पूरण-गलन स्वभाव वाला है, जबकि जीव चैतन्यमय है। स्वरूपस्थ होने से ही पौद्गलिक अशुचि शरीरों का संग छूटेगा। 'अत्यन्तशुचि स्वभावसहितोऽहम् ॥21॥
भावणासारो :: 203