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देह के धोने से चित्त निर्मल नहीं होता देहं च धुव्वमाणं वि, चित्तं हवे ण णिम्मलं।
णिक्कलुस्सं च चित्तं जं, तं णिम्मलं च णिच्चलं ॥22॥ अन्वयार्थ-(देहं च धुव्वमाणं वि) देह के धोते हुए भी (चित्तं) चित्त (णिम्मलं) निर्मल (ण हवे) नहीं होता (य) किन्तु (जं) जो (णिक्कलुस्स) निष्कलुष (चित्तं) चित्त है (तं णिम्मलं च णिच्चलं) वह निर्मल और निश्चल है।
अर्थ-देह को धोते हुए भी चित्त निर्मल नहीं होता, किन्तु जो निष्कलुष चित्त है, वह निर्मल और निश्चल है।
व्याख्या-शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है, क्योंकि इसमें रक्त, मांस, मेदा, हड्डी, वसा तथा वीर्य जैसे घृणित पदार्थ भरे हुए है। विश्व में सबसे अधिक अपवित्र कहलाने वाले पदार्थ इस शरीर से ही निकलते हैं। पवित्र स्वादिष्ट पदार्थ भी शरीर के संयोग से अपवित्र और दुर्गन्धित हो जाते हैं। अनेक बार अनेक प्रसाधनों से धोने और शृंगारित करने पर भी यह अपने अशुचि स्वभाव को नहीं छोड़ता; फिर भी संसारीजन देह ही धोते रहते हैं, जबकि देह के धोने से चित्त पवित्र नहीं होता है।
शरीर का मल धोने से कुछ भी लाभ नहीं होता, क्योंकि वह तो समुद्रभर पानी से धोने के बाद भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता। और तन के धोने से मन भी पवित्र नहीं हो जाता। अपितु चित्त के विषय-कषायादि भावों से रहित निष्कलुष होने पर ही चित्त (आत्मा) निर्मल और निश्चल होता है। महाभारत का एक सुप्रसिद्ध श्लोक है
आत्मा नदी संयम तोय पूर्णाः, सत्यावहा शीलतटा दयोर्मिः। तत्राभिषेकं कुरू पाण्डुपुत्र!, न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा॥
अर्थात् आत्मारूपी नदी जो संयम जल से पूर्ण है, सत्य जिसका प्रवाह है, शीलरूपी तट है, दया जिसकी लहरें हैं, उसमें हे पाण्डुपुत्र! स्नान करों क्योंकि पानी से अंतर आत्मा शुद्ध नहीं होती है।
वस्तुतः राग-द्वेषादि भावों से रहित आत्मा का जो शुद्ध परिणाम है, वह ही जीव के लिए कल्याणकारी है, कर्म निर्जरा का साधन है। इसलिए पुद्गलमय देह से निरपेक्ष होकर अपने अत्यन्त पवित्र स्वरूप का स्मरण करना चाहिए। 'अत्यन्तपवित्रोऽहम्' ॥22॥
आस्रव भावना तिजोगेहिं च जीवस्स, जं पदेसम्मि फंदणं। मोहोदएण जुत्तेण, तेण कम्मासवो हवे॥23॥
204 :: सुनील प्राकृत समग्र