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ज्ञेयों को जानता हुआ भी, न तो उन्हें स्व-रूप करता है और न स्वयं को पररूप करता है। 'धीरोदात्तज्ञानरूपोऽहम्' ॥29॥
संवर के साधन कसाओ णाणदो णत्थि, जप्पादो णत्थि पावगं।
मोणादो कलहो णत्थि, णत्थि जागरदो भयं ॥30॥ अन्वयार्थ-(णाणदो) ज्ञान से (कसाओ) कषाएँ (णत्थि) नहीं होती, (जप्पादो) जाप से (पावगं) पाप (णत्थि) नहीं होते (मोणादो) मौन से (कलहो णत्थि) कलह नहीं होती, (जागरदो भयं) जागने से भय (णत्थि) नहीं होता।
अर्थ-ज्ञान से कषाएँ नहीं होती, जाप से पाप नहीं होते, मौन से कलह नहीं होती तथा जागने से भय नहीं रहता है।
व्याख्या-जब तक यह जीवात्मा स्व-पर भेदविज्ञानरूप ज्ञान प्राप्त नहीं करता ,तब तक ही कषायों में स्वामित्व कर काषायिक भावों सहित प्रवृत्ति करता है। किन्तु जब यह जीव वस्तुतत्त्व को भली प्रकार जान लेता है, तब कदाचित् अप्रत्यख्यानादि जनित कषाय भाव हो भी जाए ,तो भी उसमें स्वामित्व नहीं करता है। अतः ज्ञान से कषाएँ नहीं होती हैं। यह संसार का श्रेष्ठतम साधन है। 'ज्ञानस्वरूपोऽहम्।'
णमोकार महामंत्र, ॐ ह्रीं नमः, ॐ हीं अहँ असिआउसा नमः, ज्ञानानंद स्वरूपोऽहम्, चिच्चमत्कार स्वरूपोऽहं इत्यादि मंत्रों का जाप्य करने से मन, वचन, काय की शुभता बनी रहती है। यह शुभ योग पुण्यकर्म का आस्रव कराता है। अतः जाप्य करते हुए साधक के पाप नहीं होता हैं। आत्म तल्लीनता से पुण्य-पाप दोनों नहीं होते, अपितु शुद्धोपयोग होता है। 'शांतस्वरूपोऽहम्।'
मौन से कलह नहीं होता। जब किसी प्रकार का वचनोच्चारण ही नहीं होगा, तब कलह के लिए जगह किधर है। कलह तो कषायादि से आविष्ट वचनों से होती है। इसलिए 'मौन को सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाला भी कहा जाता है। मौन
अत्यन्त शांति और निराकुलता प्रदान करता है। मौन रहने वाले साधक से कोई निंदक इतना ही कहेगा कि इसे कुछ नहीं आता' किन्तु इससे मौनी का कुछ भी नहीं बिगड़ता है। 'मौनस्वरूपोऽहम्'।
जागते रहने से भय नहीं होता। गृहस्थों को भय रहता है कि वे यदि सो गए तो चोरी हो सकती, कोई शत्रु अनर्थ कर सकता है अथवा कोई अवसर चूक सकते हैं, किन्तु यथोचित जागते रहने से भय नहीं रहता। साधुओं को भय रहता है कि वे यदि सो गए तो व्रतों में दोष लग सकता है, ध्यान- अध्ययन में बाधा पड़ सकती है अथवा अकस्मात् कोई बाधा हो सकती है, किन्तु जागृत रहने से कोई भय नहीं रहता है। 'जागृतस्वरूपोऽहम् ॥30॥
भावणासारो :: 211