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सुदृष्टिसुनार की कथा तो जगत्प्रसिद्ध है । बज्रजंघ व श्रीमति तथा अन्य जीव भी दश-भवों तक किस-किस प्रकार के नातों में प्रगट होते हैं, यह महापुराण से भलीभांति जाना जा सकता है।
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इस तथ्य को जानकर किसी से वैर विरोध रखने का भाव समाप्त हो जाता है । मन में इन समस्त सम्बन्धों से मुक्त होने का भाव बनता है । निज आत्मा के आश्रय से समस्त नातों से मुक्ति मिलती है तथा शाश्वत निजस्वरूप से अविनाशी सम्बन्ध हो जाता है। 'सांसारिक सम्बंधशून्योऽहम् ' ॥14 ॥
एकत्व भावना
एगो मरदि जादि, सुह- दुक्खं च भुंजदे ।
एगो भमदि संसारे, एगल्लो सिज्झदि सयं ॥15 ॥
अन्वयार्थ – यह जीव ( एगो मरदि जाएदि) एक ही मरता - जीता है (सुहदुक्खं च भुंजदे) सुख-दुःख भोगता हैं ( एगो भमदि संसारे) एक ही संसार में घूमता है [ तथा ] ( सयं) स्वयं ( एगल्लो) अकेला ही (सिज्झदि) सिद्ध होता है ।
अर्थ- - यह जीव संसार में अकेला ही जीता-मरता है, सुख-दुःख भोगता है, संसार में भ्रमण करता है तथा अकेला ही सिद्ध होता है।
व्याख्या— जीव का स्व-स्वरूप से सदाकाल एकत्व व पर-स्वरूप से सदा विभक्तपना है। यह जीव स्वयं ही अपने हित-अहित, बंध- मोक्ष का जिम्मेदार है । इसने अज्ञानता वश ऐसी मान्यता बना रखी है कि जीवन-मरण, सुख-दुःख देने वाला कोई अन्य है। वस्तुतः आत्मा ही आत्मा का बंधु या शत्रु है । व्रत - संयम से संपन्न आत्मा स्वयं का बंधु तथा विषय- कषाय युक्त आत्मा स्वयं का शत्रु है ।
यह जीव अकेला ही कर्म करता है, अकेला संसार में भटकता है, एक ही जन्मता-मरता है, एक ही पुण्य-पाप का फल भोगता है तथा भेद विज्ञान के बल से यह एक ही सिद्ध होता है । जैसा कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है
एक्को करेदि कम्मं, एक्को हिंडदि दीह संसारे । एक्को जायदि मरदि, तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥
कदाचित अनेक जीवों का जन्म-मरण अथवा सुख-दुःख साथ-साथ देखा जावे, तो भी उसके काल में, वेदन के भाव में अंतर होता है तथा भोगते तो सभी अपने-अपने ही कर्मों का फल हैं । अतः अपने एकत्वविभक्त निजात्मा में ही स्थिति करो । आत्मतत्त्व की प्रतीति ही आत्मानुभव है । 'एकत्वविभक्तस्वरूपोहम् ' ॥15 ॥ देह में आत्मा की स्थिति
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खीरे धिदं तिले तेल्लं, कट्ठेग्गी सुरही सुमे।
चंदक्क्ते पिऊसव्व, अप्पा देहे हि संजुदो ॥16 ॥
भावणासारो :: 199