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अर्थ-दु:ख और भय के स्थान, नाना योनि और कुलों के आश्रित चतुर्गति रूप संसार में कर्मों के द्वारा जीव घूमता है।
व्याख्या-'संसरणं संसारः' संसरण करना ही संसार है। जहाँ जन्म-मरण, राग-द्वेष, सुख-दु:ख, तथा पुण्य-पाप के वशीभूत होकर जीवगण भ्रमण करते हैं, उसका नाम है संसार। अनादिकाल से संसार है तथा अनादि काल से ही अशुद्धदशा के वशवर्ती हुए जीव इसमें संसरण (भ्रमण) कर रहे हैं।
_अपने स्वरूप की पहचान न होने से अज्ञानी जीव मिथ्यात्वादि के वशीभूत हुए नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देवगतिरूप चार गतियों, चौरासी लाख योनियों तथा एक सौ साढ़े निन्यानवे लाख कुलकोटियों में परिभ्रमण करते हुए दुःख भोगते हैं।
आगम में संसार के पाँच भेद कहें हैं-1.द्रव्यसंसार, 2. क्षेत्रसंसार, 3.कालसंसार, 4. भवसंसार, 5. भावसंसार। इसमें प्रत्येक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव तथा भावों का ग्रहण हो जाता है, इतने एक समूह को पंच परावर्तन कहते हैं। अज्ञानी जीव निजात्म वैभव को न जानकर इस पंच परार्वतन रूप संसार में भटकते हैं। आत्म-स्वरूप का यथार्थ बोध होने पर यह जीव संसारोच्छेद कर शुद्धदशा प्राप्त कर सिद्धालय में विराजमान हो जाता है। 'पंचपरावर्तनस्वभावरहितोऽहम् ॥13॥
संसार की विचित्रता मादा वि बहिणी होदि, बहिणी होदि भारिया।
भारिया बहिणी पुत्ती, विचित्तो इणमो भवो॥14॥ अन्वयार्थ-(मादा वि) माता भी (बहिणी) बहिन (होदि) हो जाती है, (बहिणी) बहिन (भारिया) पत्नी (होदि) हो जाती है [और] (भारिया) पत्नी (बहिणी पुत्ती) बहिनपुत्री हो जाती है, (इणमो) यह (भवो) संसार (विचित्तो) विचित्र है।
अर्थ-माता भी बहिन हो जाती है, बहिन पत्नी हो जाती है और पत्नी बहिन-पुत्री हो जाती है; यह संसार विचित्र है।
व्याख्या-संसार में ऐसा कोई भी जीव नहीं है, जिसके प्रायः सभी जीवों के साथ अनेक सम्बन्ध नहीं बने हों। जो जीव आज तक नित्य-निगोद से निकले ही नहीं हैं, उनके अलावा प्रायः सभी जीवों के साथ सब प्रकार के सम्बन्ध हो चुके हैं। एक भव में जो जीव माँ बनता है, दूसरे भव में वह बहिन-पत्नि अथवा अन्य कुछ भी बन सकता है। जो पिता बनता है, वह भाई या पुत्र भी बन सकता है। पति पुत्र और पुत्र भी पर्यायान्तर में पति बन सकता है।
एक जीव अन्य जीवों से कैसे अनेक सम्बन्ध बना लेता है, इसका दृष्टान्तात्मक विवेचन प्रथमानुयोग के शास्त्रों में अनेक जगह पाया जाता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका में आई हुई अठारह नातों की कथा तथा प्रद्युम्न-चरित्र में आयी हुई
198 :: सुनील प्राकृत समग्र